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कलश पद्यानुवाद
नियमसार अनुशीलन (दोहा) पंचपरावर्तन रहित पंच भवों से पार| पंचसिद्ध बंदौ सदा पंचमोक्षदातार ||२९५।।
(वीर) राग-द्वेष के द्वन्द्वों में जो नहीं रहे अघनाशक है। अखिल पापवन के समूह को दावानल सम दाहक है। अविचल और अखण्ड ज्ञानमय दिव्य सुखामृत धारक है। अरे भजो निज आतम को जो विमलबोध का दायक है ।।२९६।।
(हरिगीत) अपदपद में मत्त नित अन्धे जगत के प्राणियो। यह पद तुम्हारा पद नहीं निज जानकर क्यों सो रहे॥ जागो इधर आओ रहो नित मगन परमानन्द में। हो परमपदमय तुम स्वयं तुम स्वयं हो चैतन्यमय ||८६||
(वीर) भाव पाँच हैं उनमें पंचम परमभाव सुखदायक है। सम्यक् श्रद्धा धारकगोचर भवकारण का नाशक है।। परमशरण है इस कलियुग में एकमात्र अघनाशक है। इसे जान ध्यावें जो मुनि वे सघन पापवन पावक हैं ।।२९७।। भवसुख-दुख अरजनम-मरण की पीड़ा नहींरंच जिनके। शत इन्द्रों से वंदित निर्मल अदभुत चरण कमल जिनके|| उन निर्बाध परम आतम को काम कामना कोतजकर। नमन करूँ स्तवन करूँ मैं सम्यक् भाव भाव भाकर||२९८।।
(दोहा) आत्मसाधना से रहित है अपराधी जीव। नD परम आनन्दघर आतमराम सदीव ||२९९||
(रोला) जनम जरा ज्वर मृत्यु भी है पास न जिसके।
गती-अगति भी नाहिं है उस परमतत्त्व को॥ गुरुचरणों की सेवा से निर्मल चित्तवाले।
तन में रहकर भी अपने में पा लेते हैं ।।८७।।' अनुपम गुण से शोभित निर्विकल्प आतम में।
अक्षविषमवर्तन तो किंचितमात्र नहीं है। भवकारक गुणमोह आदि भी जिसमें न हों।
उसमें निजगुणरूप एक निर्वाण सदा है।।३००।। जिसने घाता पापतिमिर उस शुद्धातम में |
कर्म नहीं हैं और ध्यान भी चार नहीं हैं। निर्वाण स्थित शुद्ध तत्त्व में मुक्ति है वह।
मन-वाणी से पार सदा शोभित होती है ।।३०१।। बंध-छेद से नित्य शुद्ध प्रसिद्ध सिद्ध में।
ज्ञानवीर्यसुखदर्शन सब क्षायिक होते हैं। गुणमणियों के रत्नाकर नित शुद्ध शुद्ध हैं।
सब विषयों के ज्ञायक दर्शक शुद्ध सिद्ध हैं।।३०२।। जिनमत संमत मुक्ति एवं मुक्तजीव में।
हम युक्ति आगम से कोई भेद न जाने॥ यदि कोई भवि सब कर्मों का क्षय करता है।
तो वह परमकामिनी का वल्लभ होता है।३०३|| तीन लोक के शिखर सिद्ध स्थल के ऊपर।
गति हेतु के कारण का अभाव होने से॥ अरे कभी भी पुदगल जीव नहीं जाते हैं।
आगम में यह तथ्य उजागर किया गया है ।।३०४।। नियमसार अर तत्फल यह उत्तम पुरुषों के।
हृदय कमल में शोभित है प्रवचन भक्ति से। सूत्रकार ने इसकी जो अद्भुत रचना की।
भविकजनों के लिए एक मुक्तीमारग है।।३०५|| १. योगीन्द्रदेवकृत अमृताशीति, छन्द ५८
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१. समयसार : आत्मख्याति, छन्द १३८