Book Title: Niyamsara Anushilan
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 158
________________ ३१४ नियमसार अनुशीलन ( मनहरण कवित्त ) ज्ञान इक सहज परमातमा को जानकर । लोकालोक ज्ञेय के समूह को है जानता । ज्ञान के समान दर्शन भी तो क्षायिक है। वह भी स्वपर को है साक्षात् जानता ॥ ज्ञान-दर्शन द्वारा भगवान आतमा । स्वपर सभी ज्ञेयराशि को है जानता ॥ ऐसे वीतरागी सर्वज्ञ परमातमा । स्वपरप्रकाशी निज भाव को प्रकाशता || २७७॥ ( कुण्डलिया ) अरे ज्ञान से आत्मा, नहीं सर्वथा भिन्न । अर अभिन्न भी है नहीं, यह है भिन्नाभिन्न ॥ यह है भिन्नाभिन्न कथंचित् नहीं सर्वथा । अरे कथंचित् भिन्न अभिन्न भी किसी अपेक्षा ॥ जैनधर्म में नहीं सर्वथा कुछ भी होता । पूर्वापर जो ज्ञान आतमा वह ही होता ॥७८॥ (हरिगीत ) यह आतमा न ज्ञान है दर्शन नहीं है आतमा । रे स्वपर जाननहार दर्शनज्ञानमय है आतमा ।। इस अघविनाशक आतमा अर ज्ञान-दर्शन में सदा । भेद है नामादि से परमार्थ से अन्तर नहीं || २७८ ॥ इन्द्रियविषयहिमरवि सम्यग्दृष्टि निर्मल आतमा । रे ज्ञान दर्शन धर्म से संयुक्त धर्मी आतमा । अचलता को प्राप्त कर जो मुक्तिरमणी को वरें । चिरकालतक वे जीव सहजानन्द में स्थित रहें ।। २७९ ।। अरे जिनके ज्ञान में सब द्रव्य लोकालोक के । इसतरह प्रतिबिंबित जैसे गुंथे हों परस्पर ॥ हुए सुरपती नरपति मुकुटमणि की माल से अर्चित चरण । जयवंत हैं इस जगत में निर्दोष जिनवर के वचन ॥७९॥ * १. महासेन पण्डितदेव, ग्रंथ नाम और श्लोक संख्या अनुपलब्ध है। २. श्रुतबिन्दु, श्लोक संख्या अनुपलब्ध है। 158 कलश पद्यानुवाद ३१५ (हरिगीत) ज्ञान का घनपिण्ड आतम अरे निर्मल दृष्टि से । है देखता सब लोक को इस लोक में व्यवहार से ।। मूर्त और अमूर्त सब तत्त्वार्थ को है जानता । वह आतमा शिववल्लभा का परम वल्लभ जानिये ॥ २८० ॥ परमार्थ से यह निजप्रकाशक ज्ञान ही है आतमा । बाह्य आलम्बन रहित जो दृष्टि उसमय आतमा ।। स्वरस के विस्तार से परिपूर्ण पुण्य पुराण यह । निर्विकल्पक महिम एकाकार नित निज में रहे ।। २८१ ।। अत्यन्त अविचल और अन्तर्मग्न नित गंभीर है। शुद्धि का आवास महिमावंत जो अति धीर है । व्यवहार के विस्तार से है पार जो परमातमा । उस सहज स्वातमराम को नित देखता यह आतमा ||२८२ ॥ अमूर्त को अर मूर्त में भी अतीन्द्रिय प्रच्छन्न को । स्व-पर को सर्वार्थ को जाने वही प्रत्यक्ष है ॥८०॥ अनन्त शाश्वतधाम त्रिभुवनगुरु लोकालोक के | मेरे स्व-पर चेतन-अचेतन सर्वार्थ जाने पूर्णतः ॥ अरे केवलज्ञान जिनका तीसरा जो नेत्र है । विदित महिमा उसी से वे तीर्थनाथ जिनेन्द्र हैं ||२८३ ॥ 'मैं स्वयं सर्वज्ञ हूँ' ह्न इस मान्यता से ग्रस्त जो । पर नहीं देखे जगतत्रय त्रिकाल को इक समय में ॥ प्रत्यक्षदर्शन है नहीं ज्ञानाभिमानी जीव को । उस जड़ात्मन को जगत में सर्वज्ञता हो किसतरह ? || २८४ ॥ उत्पादव्ययधुवयुत जगत यह वचन हे वदताम्बरः । सर्वज्ञता का चिह्न है हे सर्वदर्शि जिनेश्वरः ॥८१॥ १. प्रवचनसार, गाथा ५४ २. बृहत्स्वयंभूस्तोत्र : भगवान मुनिसुव्रतनाथ की स्तुति, छन्द ११४

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