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कलश पद्यानुवाद
नियमसार अनुशीलन (हरिगीत) संसारभयकर बाह्य-अंतरजल्प तज समरसमयी। चित्चमत्कारी एक आतम को सदा स्मरण कर। ज्ञानज्योति से अरे निज आतमा प्रगटित किया। वह क्षीणमोही जीव देखे परमतत्त्व विशेषतः ।।२५९||
(वीरछन्द) धरम-शकलध्यान समरस में जो वर्ते वे सन्त महान | उनके चरणकमल की शरणा गहें नित्य हम कर सन्मान ।। धरम-शुकल से रहित तुच्छ मुनि कर न सके आतमकल्याण। संसारी बहिरातम हैं वे उन्हें नहीं निज आतमज्ञान ||२६०।। बहिरातम-अन्तरातम के शुद्धातम में उठे विकल्प। यह कुबुद्धियों की परिणति है ये मिथ्या संकल्प-विकल्प। ये विकल्प भवरमणी को प्रिय इनका है संसार अनन्त । ये सुबुद्धियों को न इष्ट हैं, उनका आया भव का अन्त ।।२६१||
(रोला) दर्शन अर चारित्र मोह का नाश किया है।
भवसुखकारक कर्म छोड़ संन्यास लिया है। मुक्तिमूल मल रहित शील-संयम के धारक।
समरस-अमृतसिन्धु चन्द्र को नमन करूँ मैं ||२६२|| मुक्ति सुन्दरी के दोनों अति पुष्ट स्तनों।
के आलिंगनजन्य सुखों का अभिलाषी हो। अरे त्यागकर जिनवाणी को अपने में ही। थित रहकर वह भव्यजीव जग तृणसम निरखे॥२६३||
(हरिगीत) परीवर्तन वाँचना अर पृच्छना अनुप्रेक्षा।
स्तुति मंगल पूर्वक यह पंचविध स्वाध्याय है।।७२।।' १. श्रीमूलाचार, पंचाचार अधिकार, गाथा २१९
(हरिगीत) पापमय कलिकाल में जिननाथ के भी मार्ग में। मुक्ति होती है नहीं निजध्यान संभव न लगे।। तो साधकों को सतत आतमज्ञान करना चाहिए। निज त्रिकाली आत्म का श्रद्धान करना चाहिए।॥२६४|| पशुवत् अल्पज्ञ जनकृत भयों को परित्याग कर। शुभाशुभ भववर्धिनी सब वचन रचना त्याग कर। कनक-कामिनी मोह तज सुख-शांति पाने के लिए। निज आतमा में जमे मुक्तीधाम जाने के लिए।।२६५|| कुशल आत्मप्रवाद में परमात्मज्ञानी मनीजन। पशुजनों कृत भयंकर भय आत्मबल से त्याग कर|| सभी लौकिक जल्प तज सुखशान्तिदायक आतमा। को जानकर पहिचानकर ध्यावें सदा निज आतमा ||२६६|| संसारकारक भेद जीवों के अनेक प्रकार हैं। भव जन्मदाता कर्म भी जग में अनेक प्रकार हैं।। लब्धियाँ भी हैं विविध इस विमल जिनमारगविषे । स्वपरमत के साथ में न विवाद करना चाहिए।।२६७|| पुण्योदयों से प्राप्त कांचन आदि वैभव लोक में। गुप्त रहकर भोगते जन जिस तरह इस लोक में ।। उस तरह सद्ज्ञान की रक्षा करें धर्मातमा। सब संग त्यागी ज्ञानीजन सद्ज्ञान के आलोक में ||२६८।।
(वीर छन्द) जनम-मरण का हेतु परिग्रह अरे पूर्णत: उसको छोड़। हृदय कमल में बुद्धिपूर्वक जगविराग में मन को जोड़।। परमानन्द निराकुल निज में पुरुषारथ से थिर होकर। मोह क्षीण होने पर तृणसम हम देखें इस जग की ओर ||२६९।।
(वीर) अरे पुराण पुरुष योगीजन निज आतम आराधन से। सभी करमरूपी राक्षस के परी तरह विराधन से ।। विष्णु-जिष्णु हुए उन्हीं को जो मुमुक्षु पूरे मन से। नित्य नमन करते वे मुनिजन अघ अटवी को पावक हैं।।२७०||
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