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कलश पद्यानुवाद
नियमसार अनुशीलन (हरिगीत) रे केवली भगवान जाने पूर्ण लोक-अलोक को। पर अनघ निजसुखलीन स्वातम को नहीं वे जानते॥ यदि कोई मुनिवर यों कहे व्यवहार से इस लोक में। उन्हें कोई दोष न बोलो उन्हें क्या दोष है।।२८५||
(दोहा) ज्ञानस्वभावी आतमा स्वभावप्राप्ति है इष्ट । अत: मुमुक्षु जीव को ज्ञानभावना इष्ट ||८२।।'
(रोला) शुद्धजीव तो एकमात्र है ज्ञानस्वरूपी।
अत: आतमा निश्चित जाने निज आतम को। यदि साधक न जाने स्वातम को प्रत्यक्ष तो।
ज्ञान सिद्ध हो भिन्न निजातम से हे भगवन् ।।२८६।।
(दोहा)
ज्ञान अभिन है आत्म से अत: जाने निज आत्म। भिन्न सिद्ध हो वह यदि न जाने निज आत्म ||८३||
(सोरठा) आतम दर्शन-ज्ञान दर्श-ज्ञान है आतमा। यह सिद्धान्त महान स्वपरप्रकाशे आतमा ।।२८७||
(हरिगीत) सर्वार्थ जाने जीव पर उनरूप न परिणमित हो। बस इसलिए है अबंधक ना ग्रहे ना उत्पन्न हो।।८४|| सहज महिमावंत जिनवर लोक रूपी भवन में। थित सर्व अर्थों को अरे रे देखते अर जानते॥ निर्मोहता से सभी को नित ग्रहण करते हैं नहीं। कलिमल रहित सदज्ञान से वे लोक के साक्षी रहें।।२८८||
(हरिगीत) ईहापूर्वक वचनरचनारूप न बस इसलिए। प्रकट महिमावंत जिन सब लोक के भरतार हैं। निर्मोहता से उन्हें पूरण राग-द्वेषाभाव है। द्रव्य एवं भावमय कुछ बंध होगा किस तरह? ||२८९|| अरे जिनके ज्ञान में सब अर्थ हों त्रयलोक के। त्रयलोकगुरु चतुकर्मनाशक देव हैं त्रयलोक के।। न बंध है न मोक्ष है न मूर्छा न चेतना। वे नित्य निज सामान्य में ही पूर्णत: लवलीन हैं ।।२९०|| धर्म एवं कर्म का परपंच न जिनदेव में। रे रागद्वेषाभाव से वे अतुल महिमावंत हैं। वीतरागी शोभते श्रीमान् निज सुख लीन हैं। मुक्तिरमणी कंत ज्ञानज्योति से हैं छा गये ।।२९१|| यत्न बिन ज्यों नारियों में सहज मायाचार त्यों। हो विहार उठना-बैठना अर दिव्यध्वनि अरहंत के||८५|| इन्द्र आसन कंप कारण महत केवलज्ञानमय। शिवप्रियामुखपद्मरवि सदधर्म के रक्षामणि || सर्ववर्तन भले हो पर मन नहीं है सर्वथा। पापाटवीपावक जिनेश्वर अगम्य महिमावंत हैं।।२९२।।
(दोहा) छह अपक्रम से सहित हैं जो संसारी जीव । उनसे लक्षण भिन्न हैं सदा सुखी सिध जीव ||२९३||
(वीर) देव और विद्याधरगण से नहीं वंद्य प्रत्यक्ष जहान | बंध छेद से अतुलित महिमा धारक हैं जो सिद्ध महान ।। अरे लोक के अग्रभाग में स्थित हैं व्यवहार बखान |
रहें सदा अविचल अपने में यह है निश्चय का व्याख्यान ||२९४|| १. प्रवचनसार, गाथा ४४
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१. आत्मानुशासन, छन्द १७४ २. गाथा कहाँ की है, इसका उल्लेख नहीं है ३. प्रवचनसार, गाथा ५२