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नियमसार अनुशीलन स्वामीजी इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
"परमात्मतत्त्व बाधारहित है; इन्द्रियों से ज्ञात नहीं होता है; खण्डखण्ड ज्ञान द्वारा भी आत्मा ज्ञात नहीं होता; क्योंकि आत्मा अतीन्द्रिय है। भगवान आत्मा उपमा रहित है। संसार में तो उपमा दी जा सकती है; परन्तु जिस आत्मा के असंख्यप्रदेश से केवलज्ञान का अनन्त दीपक जल गया है; उसकी क्या उपमा हो सकती है? वह तो अनुपम है। आत्मा का त्रिकाली स्वभाव भी सिद्धों जैसा ही है; अतः वह भी अनुपम है। आत्मा त्रिकाल शुद्ध है; उसमें पुण्य-पाप का प्रवेश नहीं है। आत्मा कारण है और सिद्धदशा उसका कार्य है।
जिसप्रकार सिद्ध भगवान को दुबारा जन्म नहीं लेना है; उसीप्रकार आत्मा का भी अवतार नहीं होता है। जिसप्रकार आत्मा नित्य है: उसीप्रकार उसकी पूर्ण पर्याय भी नित्य है: क्योंकि वह ज्यों की त्यों हमेशा कायम रहती है। आत्मा का स्वभाव अचल है; सिद्धपर्याय भी
अचल है । सम्यग्दर्शन का विषय त्रिकाली स्वभाव है, वह अचल और निरालंब है। 'द्रव्यदृष्टि ही सम्यग्दृष्टि है' - यह वीतरागदेव की मोहर है। त्रिकाली ध्रुव द्रव्यस्वभाव की श्रद्धा करना ही सम्यग्दर्शन है।
यहाँ भी निरुपाधिस्वरूप परमात्मतत्त्व को कहा है। जिसप्रकार १७७वीं गाथा में कहा था; उसीप्रकार यहाँ भी आत्मा के त्रिकाली स्वभाव में उपाधि नहीं है - ऐसा कहते हैं।
परमात्मतत्त्व का स्वरूप बताते हुए मुनिराज कहते हैं कि जो परमात्मतत्त्व समस्त दुष्ट-पापरूपी वीर शत्रुओं की सेना के लिए अगोचर एवं सहजज्ञानरूपी किले में रहने के कारण अव्याबाध है, निर्विघ्न है। सिद्ध भगवान भी शुद्ध आत्मा की तरह पुण्य-पाप की बाधा से रहित हैं। पुण्य और पाप दोनों ही संसार को बढ़ानेवाले होने से पाप ही हैं। अज्ञानीजन हिंसा, चोरी, काम-क्रोधादि के भावों को ही पाप कहते हैं; पर ज्ञानीजन तो दया, दान, भक्ति, व्रतादि के भावों को भी पाप कहते हैं; क्योंकि पुण्य-पाप दोनों ही आत्मा की शान्ति को लूटनेवाले हैं। पुण्य भी आत्मा का शत्रु है। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १४७६-१४७७
गाथा १७८ : शुद्धोपयोगाधिकार
आत्मा के असंख्यात प्रदेश हैं। उनमें ज्ञान और आनन्द भरे हुए हैं। आत्मा ज्ञान की गाँठ (पोटली) और आनन्द का मटका है। जिसप्रकार शक्कर में मिठास और सफेदी दोनों हैं; उसीप्रकार आत्मा ज्ञान-आनन्द की खान है। वह इन्द्रियों से ज्ञात नहीं होता; अतः अतीन्द्रिय है। __ आत्मा बहिरात्म, अन्तरात्म और परमात्म - इन तीनों तत्त्वों में व्याप्त होने से, विशिष्ट होने से अनुपम है।'
बहिरात्मतत्त्व, अन्तरात्मतत्त्व और परमात्मतत्त्व - ये सभी पर्यायें हैं। उनसे विशिष्ट असाधारण त्रिकाली सामान्यतत्त्व अनुपम हैं अर्थात् आत्मा को किसी अन्य पदार्थ से उपमित नहीं किया जा सकता है।
पुण्य-पाप आत्मा की विकारी परिणतिरूप स्त्री है। उस स्त्री के संवेदन से होनेवाले सुख-दुःख का आत्मा में अभाव है।'
वह आत्मा और सिद्ध परमात्मा नित्यमरण (प्रतिसमय होनेवाला आयुकर्म के निषेकों का क्षय) और भवसंबंधी मरण के कारणभूत शरीर के संबंध का अभाव हो जाने से नित्य हैं। निजगुण और पर्याय से च्युत नहीं होने के कारण अचल हैं। परद्रव्य के आलंबन का अभाव होने के कारण निरालंब हैं। संसारियों के प्रतिक्षण आयुकर्म का क्षय होता जाता है। सिद्धों में आयुकर्म नहीं है; अत: वहाँ मरण भी नहीं है। तथा आत्मा में कर्म भी नहीं है; अतः आत्मा का भी मरण नहीं होता। संसारियों की पर्याय में प्रतिक्षण भावमरण हो रहा है, यह भावमरण त्रिकाली स्वभाव में नहीं है। आत्मा में जब भव ही नहीं है तो मरण किसका? आत्मा का मरण नहीं होता; अतः वह नित्य है । तथा आत्मा अपने त्रिकाली गुण और कारणशुद्धपर्याय से कभी च्युत नहीं होता; अतः अचल है। उसे पर का आलंबन नहीं है; अत: वह निरालम्ब है। यह जीव ऐसे आत्मा की श्रद्धा-ज्ञान करके उसमें स्थिरता करे तो
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१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १४७८ २. वही, पृष्ठ १४७८
३. वही, पृष्ठ १४७८