Book Title: Niyamsara Anushilan
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 147
________________ २९२ नियमसार अनुशीलन = १६ होता है। इसप्रकार इस शास्त्र में सोलह आने परिपूर्ण बात आ इसप्रकार इस गाथा और उसकी टीका में कहा गया है कि यह शास्त्र मैंने अपनी भावना की पुष्टि के निमित्त से बनाया है। कहा जाता है कि आचार्य कुन्दकुन्ददेव स्वयं प्रतिदिन इस ग्रन्थ का पाठ करते थे। वे कहते हैं कि मैंने तो यह शास्त्र अपनी कल्पना से नहीं बनाया है; पूर्वापर दोष से रहित जिनेन्द्रदेव के उपदेशानुसार बनाया है। अत: यह पूर्णत: निर्दोष शास्त्र है। इस गाथा की टीका में टीकाकार किंच कहकर अनेक विशेषण लगाकर कहते हैं कि इस नियमसार नामक शास्त्र के तात्पर्य को दो प्रकार से जाना जा सकता है ह्न सूत्रतात्पर्य और शास्त्रतात्पर्य । सूत्रतात्पर्य तो प्रत्येक गाथा में बता दिया गया है और शास्त्रतात्पर्य शाश्वत सुख की प्राप्ति है। इस अंश की विशेषता यह है कि इसके पूर्वार्ध में तो सभी अधिकारों में प्रतिपादित वस्तु का संक्षेप में उल्लेख किया गया है और उत्तरार्ध में नियमसार शास्त्र की महिमा के साथ इसके अध्ययन का फल भी बता दिया गया है। हम सभी आत्मार्थी भाई-बहिनों का कर्तव्य है कि इसका स्वाध्याय अत्यन्त भक्तिभाव से गहराई से अवश्य करें ।।१८७।। ___ इसप्रकार इस नियमसार शास्त्र की तात्पर्यवृत्ति टीका की पूर्णाहुति करते हुए टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव चार छन्द लिखते हैं; जिसमें पहला छन्द इसप्रकार है ह्न (मालिनी) सुकविजनपयोजानन्दिमित्रेण शस्तं ललितपदनिकायैर्निर्मितं शास्त्रमेतत् । निजमनसि विधत्ते यो विशुद्धात्मकांक्षी स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः ।।३०८।। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १५६० गाथा १८७ : शुद्धोपयोगाधिकार (हरिगीत) सुकविजन पंकजविकासी रवि मुनिवर देव ने। ललित सूत्रों में रचा इस परमपावन शास्त्र को। निज हृदय में धारण करेजो विशद्ध आतमकांक्षी। वह परमश्री वल्लभा का अती वल्लभ लोक में ||३०८।। सुकविजनरूपी कमलों को आनन्द देने, विकसित करनेवाले सूर्य श्री कुन्दकुन्द आचार्यदेव के द्वारा ललित पद समूहों में रचे हुए इस उत्तम शास्त्र को जो विशुद्ध आत्मा का आकांक्षी जीव निज मन में धारण करता है; वह परमश्रीरूपी कामिनी का वल्लभ होता है। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस छन्द के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “शुद्ध आत्मा के ही आश्रय से मोक्षमार्ग होता है और उसका फल मोक्ष है। उन दोनों का वर्णन आचार्यदेव ने किया है और कहा है कि इस शास्त्र का फल परमानन्दमय मोक्षदशा की प्राप्ति होना है।' भगवान कुन्दकुन्ददेव ने इस शास्त्र में अन्तर के ज्ञायकस्वभाव को बताया है। उस शुद्धात्मस्वभाव को समझकर जो जीव हृदय में धारण करता है अर्थात् उसकी पहचान करके उसमें लीन होता है; वह जीव अपनी मोक्षपरिणति का स्वामी होता है। उस मोक्षपरिणति का उसे कभी विरह नहीं होता है। ___ अर्थात् द्रव्य को अपनी शुद्ध पर्याय का कभी वियोग नहीं होता है। ऐसी मोक्षदशा की प्राप्ति - इस शास्त्र का फल है।" ___इस छन्द में भी यही कहा गया है कि इस परमपावन शास्त्र में प्रतिपादित मर्म को अपने चित्त में धारण करनेवाले आत्मार्थियों को मुक्ति की प्राप्ति होती है। 147 १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १५६१-१५६२ २. वही, पृष्ठ १५६२ ३. वही, पृष्ठ १५६३

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