Book Title: Niyamsara Anushilan
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 149
________________ गाथा पद्यानुवाद गाथा पद्यानुवाद परमसमाधि अधिकार (हरिगीत ) वचन उच्चारण क्रिया तज वीतरागी भाव से। ध्यावे निजातम जो समाधि परम होती है उसे ।।१२२।। संयम नियम तप धरम एवं शुक्ल सम्यक् ध्यान से। ध्यावे निजातम जो समाधि परम होती है उसे ।।१२३|| वनवास कायक्लेशमय उपवास अध्ययन मौन से। अरे समताभाव बिन क्या लाभ श्रमणाभास को ।।१२४|| जो विरत हैं सावध से अर तीन गुप्ति सहित हैं। उन जितेन्द्रिय संत को जिन कहें सामायिक सदा ।।१२५|| अस और थावर के प्रति अर सर्वजीवों के प्रति। समभाव धारक संत को जिन कहें सामायिक सदा ।।१२६।। आतमा है पास जिनके नियम-संयम-तप विषै। उन आत्मदर्शी संत को जिन कहें सामायिक सदा ।।१२७|| राग एवं वेष जिसका चित्त विकृत न करें। उन वीतरागी संत को जिन कहें सामायिक सदा ।।१२८।। आर्त एवं रौद्र से जो सन्त नित वर्जित रहें। उन आत्मध्यानी संत को जिन कहें सामायिक सदा।।१२९।। जो पुण्य एवं पाप भावों के निषेधक हैं सदा। उन वीतरागी संत को जिन कहे सामायिक सदा।।१३०|| जो रहित हैं नित रति-अरति उपहास अरशोकादिसे। उन वीतरागी संत को जिन कहें सामायिक सदा।।१३१|| जो जुगुप्सा भय वेद विरहित नित्य निज में रत रहें। उन वीतरागी सन्त को जिन कहें सामायिक सदा।।१३२।। जो धर्म एवं शक्लध्यानी नित्य ध्यावें आतमा। उन वीतरागी सन्त को जिन कहें सामायिक सदा।।१३३|| परमभक्ति अधिकार भक्ति करेंजो श्रमण श्रावक ज्ञान-दर्शन-चरण की। निरवृत्ति भक्ति उन्हें हो इस भाँति सब जिनवर कहें ।।१३४|| मुक्तिगत नरश्रेष्ठ की भक्ति करें गुणभेद से। वह परमभक्ति कही है जिनसूत्र में व्यवहार से ||१३५|| जो थाप निज को मुक्तिपथ भक्ति निवृत्ति की करें। वे जीव निज असहाय गुण सम्पन्न आतम को वरें॥१३६।। जो साधु आतम लगावे रागादि के परिहार में। वह योग भक्ति युक्त हैं यह अन्य को होवे नहीं।।१३७।। जो साधु आतम लगावे सब विकल्पों के नाश में। वह योगभक्ति युक्त हैं यह अन्य को होवे नहीं।।१३८|| जिनवर कथित तत्त्वार्थ में निज आतमा को जोड़ना। ही योग है यह जान लो विपरीत आग्रह छोड़कर।।१३९।। वृषभादि जिनवरदेव ने पाया परम निर्वाण सुख। इस योगभक्ति से अतः इस भक्ति को धारण करो।।१४०|| निश्चयपरमावश्यक अधिकार जो अन्य के वश नहीं कहते कर्म आवश्यक उसे। कर्मनाशक योग को निर्वाण मार्ग कहा गया ।।१४१|| जो किसी के वश नहीं वह अवश उसके कर्म को। कहे आवश्यक वही है युक्ति मुक्ति उपाय की॥१४२।। अशुभभाव सहित श्रमण है अन्यवश बस इसलिये। उसे आवश्यक नहीं यह कथन है जिनदेव का।।१४३|| वे संयमी भी अन्यवश हैं जो रहें शुभभाव में। उन्हें आवश्यक नहीं यह कथन है जिनेदव का।।१४४|| विकल्पों में मन लगावें द्रव्य-गुण-पर्याय के। अरे वे भी अन्यवश निर्मोहजिन ऐसा कहें।।१४५।। परभाव को परित्याग ध्यावे नित्य निर्मल आतमा। वह आत्मवश है इसलिए ही उसे आवश्यक कहे ॥१४६|| 149

Loading...

Page Navigation
1 ... 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165