Book Title: Niyamsara Anushilan
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 153
________________ ३०४ नियमसार अनुशीलन ( हरिगीत ) संसारभयहर ज्ञानदर्शनचरण की जो संयमी । श्रावक करें भव अन्तकारक अतुल भक्ती निरन्तर ॥ वे काम क्रोधादिक अखिल अघ मुक्त मानस भक्तगण । ही लोक में जिनभक्त सहृदय और सच्चे भक्त हैं ||२२०॥ (दोहा) सिद्धवधूधव सिद्धगण नाशक कर्मसमूह | मुक्तिनिलयवासी गुणी वंदन करूँ सदीव || २२१ ।। सिद्धभक्ति व्यवहार है जिनमत के अनुसार । नियतभक्ति है रतनत्रय भविजन तारणहार ।। २२२ ॥ सब दोषों से दूर जो शुद्धगुणों का धाम । आत्मध्यानफल सिद्धपद सूरि कहें सुखधाम ॥२२३॥ ( दोहा ) सिद्धवधूधव सिद्धगण नाशक कर्मसमूह | मुक्तिनिलयवासी गुणी वंदन करूँ सदीव || २२१ ॥ सिद्धभक्ति व्यवहार है जिनमत के अनुसार । नियतभक्ति है रतनत्रय भविजन तारणहार ॥ २२२ ॥ सब दोषों से दूर जो शुद्धगुणों का धाम । आत्मध्यानफल सिद्धपद सूरि कहें सुखधाम ||२२३|| ( हरिगीत ) शिववधूसुखवान केवलसंपदा सम्पन्न जो । पापाटवी पावक गुणों की खान हैं जो सिद्धगण ॥ भवक्लेश सागर पार अर लोकाग्रवासी सभी को । वंदन करूँ मैं नित्य पाऊँ परमपावन आचरण ॥ २२४ ॥ ज्ञेयोदधि के पार को जो प्राप्त हैं वे सुख उदधि । शिववधूमुखकमलरवि स्वाधीनसुख के जलनिधि ॥ आठ कर्मों के विनाशक आठगुणमय गुणगुरु | लोकाग्रवासी सिद्धगण की शरण में मैं नित रहूँ ।। २२५ ॥ 153 कलश पद्यानुवाद ( हरिगीत ) सुसिद्धिरूपी रम्यरमणी के मधुर रमणीय मुख । कमल के मकरंद के अलि वे सभी जो सिद्धगण ॥ नरसुरगणों की भक्ति के जो योग्य शिवमय श्रेष्ठ हैं। मैं उन सभी को परमभक्ति भाव से करता नमन || २२६ ॥ शिवहेतु निरुपम सहज दर्शन ज्ञान सम्यक् शीलमय । अविचल त्रिकाली आत्मा में आत्मा को थाप कर ॥ चिच्चमत्कारी भक्ति द्वारा आपदाओं से रहित । घर में बसें आनन्द से शिव रमापति चिरकाल तक ||२२७॥ (दोहा) निज आतम के यत्न से मनगति का संयोग । निज आतम में होय जो वही कहावे योग ||६५॥ निज आतम में आतमा को जोड़े जो योगि । योग भक्ति वाला वही मुनिवर निश्चय योगि || २२८ ॥ आत्मलब्धि रूपा मुकति योगभक्ति से होय । योगभक्ति सर्वोत्तमा भेदाभावे होय || २२९|| छोड़ दुराग्रह जैन मुनि मुख से निकले तत्त्व | में जोड़े निजभाव तो वही भाव है योग || २३०|| ३०५ ( वीरछन्द ) शुद्धपरिणति गुणगुरुओं की अद्भुत अनुपम अति निर्मल । तीन लोक में फैल रही है जिनकी अनुपम कीर्ति धवल ॥ इन्द्रमुकुटमणियों से पूजित जिनके पावन चरणाम्बुज । उन ऋषभादि परम गुरुओं को वंदन बारंबार सहज || २३१ ॥ ऋषभदेव से महावीर तक इसी मार्ग से मुक्त हुए। इसी विधि से योगभक्ति कर शिवरमणी सुख प्राप्त किये ॥ २३२ ॥ (दोहा) मैं भी शिवसुख के लिए योगभक्ति अपनाऊँ । भव भय से हे भव्यजन इसको ही अपनाओ || २३३|| १. श्लोक संख्या एवं ग्रंथ का नाम अनुपलब्ध है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165