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कलश पद्यानुवाद
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नियमसार अनुशीलन (दोहा) कोई वर्ते द्वैत में अर कोई अद्वैत । द्वैताद्वैत विमुक्तमग हम वर्ते समवेत||२०५।। कोई चाहे द्वैत को अर कोई अद्वैत। द्वैताद्वैत विमुक्त जिय मैं वंदू समवेत॥२०६।।
(सोरठा) थिर रह सुख के हेतु अज अविनाशी आत्म में। भाऊँ बारंबार निज को निज से निरन्तर||२०७||
(हरिगीत) संसार के जो हेतु हैं इन विकल्पों के जाल से। क्या लाभ है हम जा रहे नयविकल्पों के पार अब || नयविकल्पातीत सुखमय अगम आतमराम को। वन्दन करूँ कर जोड़ भवभय नाश करने के लिए।।२०८|| अच्छे बुरे निजकार्य से सुख-दुःख हो संसार में। पर आतमा में हैं नहीं ये शुभाशुभ परिणाम सब ।। क्योंकि आतमराम तो इनसे सदा व्यतिरिक्त है। स्तुति करूँ मैं उसी भव से भिन्न आतमराम की।।२०९|| प्रगट अपने तेज से अति प्रबल तिमिर समूह को। दूर कर क्षणमात्र में ही पापसेना की ध्वजा ।। हरण कर ली जिस महाशय प्रबल आतमराम ने। जयवंत है वह जगत में चित्चमत्कारी आतमा ||२१०।। गणधरों के मनकमल थित प्रगट शुध एकान्ततः । भवकारणों से मुक्त चित् सामान्य में है रत सदा॥ सदृष्टियों को सदागोचर आत्ममहिमालीन जो। जयवंत है भव अन्तकारक अनघ आतमराम वह ||२११|| शुद्ध सम्यग्दृष्टिजन जाने कि संयमवंत के। तप-नियम-संयम-चरित में यदि आतमा ही मुख्य है। तो सहज समताभाव निश्चित जानिये हे भव्यजन। भावितीर्थंकर श्रमण को भवभयों से मुक्त जो||२१||
(रोला) किया पापतम नाश ज्ञानज्योति से जिसने।
परमसुखामृतपूर आतमा निकट जहाँ है। राग-द्वेष न समर्थ उसे विकृत करने में। उस समरसमय आतम में है विधि-निषेध क्या ||२१३।।
(सोरठा) जो मुनि छोड़े नित्य आर्त्त-रौद्र ये ध्यान दो। सामायिकव्रत नित्य उनको जिनशासन कथित ||२१४||
(हरिगीत ) संसार के जो मूल ऐसे पुण्य एवं पाप को। छोड़ नित्यानन्दमय चैतन्य सहजस्वभाव को। प्राप्त कर जो रमण करते आत्मा में निरंतर अरे त्रिभुवनपूज्य वे जिनदेवपद को प्राप्त हों।।२१५।। पुनपापरूपी गहनवन दाहक भयंकर अग्नि जो। अर मोहतम नाशक प्रबल अति तेज मक्तीमल जो॥ निरुपाधि सुख आनन्ददा भवध्वंस करने में निपुण। स्वयंभू जो ज्ञान उसको नित्य करता मैं नमन ||२१६।। आकुलित होकर जी रहा जिय अघों के समुदाय से। भववधू का पति बनकर काम सुख अभिलाष से || भव्यत्व द्वारा मुक्ति सुख वह प्राप्त करता है कभी। अनूपम सिद्धत्वसुख से फिर चलित होता नहीं।।२१७|| मोहान्ध जीवों को सुलभ पर आत्मनिष्ठ समाधिरत। जो जीव हैं उन सभी को है महादुर्लभ भाव जो ।। वह भवस्त्री उत्पन्न सुख-दुखश्रेणिकारक रूप है। मैं छोड़ता उस भाव को जो नोकषायस्वरूप है।।२१८|| इस अनघ आनन्दमय निजतत्त्व के अभ्यास से । है बुद्धि निर्मल हुई जिनकी धर्म शक्लध्यान से || मन वचन मग से दूर हैं जो वे सुखी शद्धातमा । उन रतनत्रय के साधकों को प्राप्त हो निज आतमा ||२१९||
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