Book Title: Niyamsara Anushilan
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 151
________________ ३०० नियमसार अनुशीलन फिर आयुक्षय से शेष प्रकृति नष्ट होती पूर्णतः । फिर शीघ्र ही इक समय में लोकाग्रथित हों केवली ॥१७६॥ शुद्ध अक्षय करम विरहित जनम मरण जरा रहित । ज्ञानादिमय अविनाशि चिन्मय आतमा अक्षेद्य है ।।१७७|| पुणपापविरहित नित्य अनुपम अचल अव्याबाध है। अनालम्ब अतीन्द्रियी पुनरागमन से रहित है ।। १७८ || जनम है न मरण है सुख-दुख नहीं पीड़ा नहीं । बाधा नहीं वह दशा ही निर्बाध है निर्वाण है ।। १७९ ।। इन्द्रियाँ उपसर्ग एवं मोह विस्मय भी नहीं । निद्रा तृषा अर क्षुधा बाधा है नहीं निर्वाण में || १८० ॥ कर्म अर नोकर्म चिन्ता आर्त्त रौद्र नहीं जहाँ । ध्यान धरम शुकल नहीं निर्वाण जानो है वहाँ ।। १८१ ॥ अरे केवलज्ञानदर्शन नंतवीरजसुख जहाँ । अमूर्तिक अर बहुप्रदेशी अस्तिमय आतम वहाँ ।। १८२ ॥ निर्वाण ही सिद्धत्व है सिद्धत्व ही निर्वाण है। लोकाग्र तक जाता कहा है कर्मविरहित आतमा ||१८३॥ जीव अर पुद्गलों का बस वहाँ तक ही गमन है । जहाँ तक धर्मास्ति है आगे न उनका गमन है || १८४|| नियम एवं नियमफल को कहा प्रवचनभक्ति से । यदी विरोध दिखे कहीं समयज्ञ संशोधन करें ।। १८५ ।। यदि कोई ईर्ष्याभाव से निन्दा करे जिनमार्ग की । छोड़ो न भक्ति वचन सुन इस वीतरागी मार्ग की ॥१८६॥ जान जिनवरदेव के निर्दोष इस उपदेश को । निज भावना के निमित मैंने किया है इस ग्रंथ को ॥ १८७॥ 900 151 कलश पद्यानुवाद ( हरिगीत ) समाधि बल से मुमुक्षु उत्तमजनों के हृदय में । स्फुरित समताभावमय निज आतमा की संपदा ॥ जबतक न अनुभव करें हम तबतक हमारे योग्य जो । निज अनुभवन का कार्य है वह हम नहीं हैं कर रहे ॥ २००॥ निर्विकल्पक समाधि में नित रहें जो आतमा । उस निर्विकल्पक आतमा को नमन करता हूँ सदा ॥ २०१ || विपिन शून्य प्रदेश में गहरी गुफा के वास से । इन्द्रियों के रोध अथवा तीर्थ के आवास से । पठन-पाठन होम से जपजाप अथवा ध्यान से। नहीं सिद्धि खोजलो पथ अन्य गुरु के योग से ॥ ६४ ॥ अनशनादि तपस्या समता रहित मुनिजनों की । निष्फल कही है इसलिए गंभीरता से सोचकर ॥ और समताभाव का मंदिर निजातमराम जो । उस ही निराकुलतत्त्व को भज लो निराकुलभाव से || २०२ || संसारभय के हेतु जो सावद्य उनको छोड़कर । मनवचनतन की विकृति से पूर्णतः मुख मोड़कर ॥ अरे अन्तशुद्धि से सद्ज्ञानमय शुद्धातमा । को जानकर समभावमयचारित्र को धारण करें ||२०३ || जिन मुनिवरों का चित्त नित त्रस थावरों के त्रास से । मुक्त हो सम्पूर्णतः अन्तिम दशा को प्राप्त हो ॥ उन मुनिवरों को नमन करता भावना भाता सदा । स्तवन करता हूँ निरन्तर मुक्ति पाने के लिए || २०४ || १. अमृताशीति, श्लोक ५९

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