Book Title: Niyamsara Anushilan
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 150
________________ २९८ गाथा पद्यानुवाद २९९ नियमसार अनुशीलन आवश्यकों की चाह हो थिर रहो आत्मस्वभाव में। इस जीव के हो पूर्ण सामायिक इसी परिणाम से ||१४७|| जो श्रमण आवश्यक रहित चारित्र से अति भ्रष्ट वे। पूर्वोक्त क्रम से इसलिए तुम नित्य आवश्यक करो।।१४८।। श्रमण आवश्यक सहित हैं शुद्ध अन्तर-आत्मा। श्रमण आवश्यक रहित बहिरातमा हैं जान लो ||१४९|| जो रहे अन्तरबाह्य जल्पों में वही बहिरातमा। पर न रहे जो जल्प में है वही अन्तर आतमा ।।१५०|| हैं धरम एवं शुकल परिणत श्रमण अन्तर आतमा । पर ध्यान विरहित श्रमण है बहिरातमा यह जान लो ||१५१|| प्रतिक्रमण आदिकक्रिया निश्चयचरितधारक श्रमणही। हैं वीतरागी चरण में आरूढ़ केवलि जिन कहें।।१५२।। वचनमय प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान अर आलोचना। बाचिक नियम अर ये सभी स्वाध्याय के ही रूप हैं ।।१५३।। यदिशक्य हो तो ध्यानमय प्रतिक्रमण करना चाहिए। यदि नहीं हो शक्ति तो श्रद्धान ही कर्तव्य है।।१५४|| जिनवरकथित जिनसूत्र में प्रतिक्रमण आदिक जोकहे। कर परीक्षा फिर मौन से निजकार्य करना चाहिए।।१५५|| हैं जीव नाना कर्म नाना लब्धि नानाविध कही। अतएव वर्जित बाद है निज पर समय के साथ भी ।।१५६।। ज्यों निधी पाकर निजवतन में गुप्त रह जन भोगते। त्यों ज्ञानिजन भी ज्ञाननिधि परसंग तज के भोगते||१५७|| यों सभी पौराणिक पुरुष आवश्यकों को धारकर। अप्रमत्तादिक गुणस्थानक पार कर केवलि हुए।।१५८|| शुद्धोपयोग अधिकार निज आतमा को देखें-जानें केवली परमार्थ से। पर जानते हैं देखते हैं सभी को व्यवहार से ||१५९|| ज्यों ताप और प्रकाश रवि में एकसाथ रहें सदा। त्यों केवली के ज्ञान-दर्शन एकसाथ रहें सदा ।।१६०|| परप्रकाशक ज्ञान दर्शन स्वप्रकाशक इसतरह। स्वपरप्रकाशक आत्मा है मानते हो तुम यदि।।१६१|| पर का प्रकाशक ज्ञान तो दृग भिन्न होगा ज्ञान से। पर को न देखे दर्श ह ऐसा कहा तुमने पूर्व में ||१६२।। पर का प्रकाशक आत्म तो दृग भिन्न होगा आत्म से। पर को न देखे दर्श ह ऐसा कहा तुमने पूर्व में ||१६३|| परप्रकाशक ज्ञान सम दर्शन कहा व्यवहार से। अरपरप्रकाशक आत्म समदर्शन कहा व्यवहार से ।।१६४|| निजप्रकाशक ज्ञान सम दर्शन कहा परमार्थ से।। अर निजप्रकाशक आत्म सम दर्शन कहा परमार्थ से||१६५|| देखे-जाने स्वयं को पर को नहीं जिनकेवली। यदि कहे कोई इसतरह उसमें कहो है दोष क्या ? ||१६६।। चेतन-अचेतन मूर्त और अमूर्त सब जग जानता। वह ज्ञान है प्रत्यक्ष अर उसको अतीन्द्रिय जानना ।।१६७|| विविध गुण पर्याय युत वस्तु न जाने जीव जो। परोक्षदृष्टि जीव वे जिनवर कहें इस लोक में ||१६८|| सब विश्व देखें केवली निज आत्मा देखें नहीं। यदि कहे कोई इसतरह उसमें कहो है दोष क्या ?||१६९|| ज्ञान जीवस्वरूप इससे जानता है जीव को। जीव से हो भिन्न वह यदि नहीं जाने जीव को॥१७०|| आत्मा है ज्ञान एवं ज्ञान आतम जानिये। संदेह न बस इसलिए निजपरप्रकाशक ज्ञान दृग ।।१७१।। जानते अर देखते इच्छा सहित वर्तन नहीं। बस इसलिए है अबंधक अर केवली भगवान वे||१७२।। बंध कारण जीव के परिणामपूर्वक वचन हैं। परिणाम विरहित वचन केवलिज्ञानियों को बंध न ||१७३|| ईहापूर्वक वचन ही हो बंधकारण जीव को। ईहा रहित हैं वचन केवलिज्ञानियों को बंध न ||१७४|| खड़े रहना बैठना चलना न ईहापूर्वक। बंधन नहीं अर मोहवश संसारी बंधन में पड़े||१७५।। 150

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