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नियमसार अनुशीलन कहा कि श्रीकृष्ण जैसा मेरा स्वामी और तुम मुझसे वस्त्र धोने के लिए कह रहे हो? तुममें श्रीकृष्ण जैसा बल कहाँ है ?
तब श्री नेमिनाथ भगवान श्रीकृष्ण की नागशय्या में सो गये और उनका शंख लेकर ध्वनि करने लगे। उस शंख की ध्वनि सुनते ही धरती काँप उठी थी। भाई ! गृहस्थपने में ही उनके ऐसा अचिन्त्य बल था। बाद में शादी के प्रसंग में वैराग्य पाकर मुनि हुए और केवलज्ञान प्राप्त किया। ___ अहो ! ऐसे सर्वज्ञनाथ भगवान की स्तुति तीन लोक में कौन कर सकता है; तथापि हे नाथ! हमें तुम्हारी भक्ति करने का विकल्प एवं उत्सुकता बनी रहती है। परन्तु हे नाथ! यह विकल्प भी तोड़कर स्वरूप में ठहरूँगा, तभी आपके जैसा केवलज्ञान प्राप्त होगा।"
उक्त छन्द में नेमिनाथ भगवान की स्तुति की गई है। कहा गया है कि जिन्होंने गृहस्थावस्था में शंखध्वनि से सबको कंपा दिया था और सर्वज्ञ दशा में जिनके ज्ञान में लोकालोक समाहित हो गये थे; उन नेमिनाथ की स्तुति कौन कर सकता है; पर मैं जो कर रहा हूँ, वह तो एकमात्र उनके प्रति अगाध भक्ति का ही परिणाम है।।३०७।। .
नियमसार गाथा १८७ नियमसार की इस अन्तिम गाथा में यह कहा गया है कि मैंने यह नियमसार नामक ग्रंथ स्वयं की अध्यात्म भावना के पोषण के लिए लिखा है। गाथा मूलत: इसप्रकार है तू
णियभावणाणिमित्तं मए कदं णियमसारणामसुदं । णच्चा जिणोवदेसं पुव्वावरदोसणिम्मुक्कं ।।१८७।।
(हरिगीत) जान जनवरदेव के निर्दोष इस उपदेश को।
निज भावना के निमित मैंने किया है इस ग्रंथ को ।।१८७|| जिनेन्द्रदेव के पूर्वापर दोष रहित उपदेश को भलीभाँति जानकर यह नियमसार नामक शास्त्र मेरे द्वारा अपनी भावना के निमित्त से किया गया है।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
"यह शास्त्र के नामकथन द्वारा शास्त्र के उपसंहार संबंधी कथन है।
यहाँ आचार्य श्री कुन्दकुन्ददेव प्रारंभ किये गये कार्य के अन्त को प्राप्त हो जाने से अत्यन्त कृतार्थता को पाकर कहते हैं कि सैंकड़ों परमअध्यात्मशास्त्रों में कुशल मेरे द्वारा अशुभ भावों से बचने के लिए अपनी भावना के निमित्त से यह नियमसार नामक शास्त्र किया गया है।
क्या करके यह शास्त्र किया गया है ?
अवंचक परमगुरु के प्रसाद से पहले अच्छी तरह जानकर यह शास्त्र लिखा गया है।
क्या जानकर? जिनोपदेश को जानकर । वीतराग-सर्वज्ञ भगवान के मुखारविन्द से निकले हुए परम उपदेश को जानकर यह शास्त्र लिखा है।
कैसा है यह उपदेश?
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १५५१
आत्मानुभूति प्राप्त करने के लिए समस्त जगत पर से दृष्टि हटानी होगी। समस्त जगत से आशय है कि आत्मा से भिन्न शरीर, कर्म आदि जड़ (अचेतन) द्रव्य तो 'पर' हैं ही, अपने आत्मा को छोड़कर अन्य चेतन पदार्थ भी 'पर' हैं तथा आत्मा में प्रतिसमय उत्पन्न होनेवाली विकारी-अविकारी पर्यायें (दशा) भी दृष्टि का विषय नहीं हो सकतीं। उनसे भी परे अखण्ड त्रिकाली चैतन्य ध्रुव आत्म-तत्त्व है, वही एकमात्र दृष्टि का विषय है, जिसके आश्रय से आत्मानुभूति प्रगट होती है, जिसे कि धर्म कहा जाता है।
ह्र तीर्थंकर महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थ, पृष्ठ-१३५
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