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नियमसार अनुशीलन पूर्वापर दोष से रहित है। पूर्वापरदोष के हेतुभूत सम्पूर्ण मोह-रागद्वेष के अभाव से जिन्होंने आप्तता प्राप्त की है। उनके मुख से निकला होने से वह जिनोपदेश पूर्णत: निर्दोष है। ___ दूसरी बात यह है कि वस्तुतः समस्त आगम के अर्थ को सार्थकता पूर्वक प्रतिपादन करने में समर्थ, नियम शब्द से संसूचित विशुद्ध मोक्षमार्ग, पंचास्तिकाय के प्रतिपादन में समर्थ, पंचाचार के विस्तृत प्रतिपादन से संचित, छह द्रव्यों से विचित्र, सात और नौ पदार्थों का निरूपण है गर्भ में जिसके, पाँच भावों के विस्तृत प्रतिपादन में परायण, निश्चय प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, प्रायश्चित्त, परमालोचना, नियम, व्युत्सर्ग आदि सभी परमार्थ क्रियाकाण्ड के आडम्बर से समृद्ध, तीन उपयोगों के कथन से सम्पन्न ह्न ऐसे इस परमेश्वरकथित नियमसार नामक शास्त्र के तात्पर्य को दो प्रकार से निरूपित किया जाता है ह्र सूत्रतात्पर्य और शास्त्रतात्पर्य।
सूत्रतात्पर्य तो गाथारूप पद्य कथन के माध्यम से प्रत्येक गाथा सूत्र में यथास्थान प्रतिपादित किया गया है और अब शास्त्र तात्पर्य यहाँ टीका में प्रतिपादित किया जा रहा है; जो इसप्रकार है ह्र
यह नियमसार शास्त्र भागवत शास्त्र है. भगवान द्वारा प्रतिपादित शास्त्र है। जो महापुरुष; निर्वाण सुन्दरी से उत्पन्न होनेवाले परम वीतरागात्मक, अव्याबाध, निरन्तर अतीन्द्रिय परमानन्द देनेवाले; निरतिशय, नित्य शुद्ध, निरंजन, निज कारणपरमात्म की भावना के कारण; समस्त नय समूह से शोभित, पंचमगति के हेतुभूत, पाँच इन्द्रियों के विस्तार से रहित, देहमात्र परिग्रहधारी निर्ग्रन्थ मुनिवर से रचित इस नियमसार नामक भागवत शास्त्र को निश्चयनय और व्यवहारनय के अविरोध से जानते हैं; वे महापुरुष समस्त अध्यात्मशास्त्रों के हृदय को जाननेवाले और परमानन्दरूप वीतराग सुख के अभिलाषी, बाह्याभ्यन्तर चौबीस परिग्रहों के प्रपंच के त्यागी, त्रिकाल, निरुपाधि स्वरूप में लीन निज कारणपरमात्मा के स्वरूप के श्रद्धान-ज्ञान-आचरणात्मक भेदोपचार
गाथा १८७ : शुद्धोपयोगाधिकार
२९१ कल्पना निरपेक्ष स्वस्थ रत्नत्रय में परायण होकर वर्तते हुए शब्द ब्रह्म के फलरूप शाश्वत सुख के भोक्ता होते हैं।"
पूज्य स्वामीजी इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
"भगवान कुन्दकुन्दाचार्य महामुनि निर्ग्रन्थ संत थे। छठवें-सातवें गुणस्थान के आत्मा के आनन्द में वर्तते थे। ___टीकाकार कहते हैं कि यह शास्त्र भागवत शास्त्र है, दैवीयशास्त्र है, पारमेश्वर शास्त्र है; भगवान का किया हुआ भागवत है। ऐसे शास्त्र को अपने आत्मा की निज भावना के लिए रचा है। दूसरे जीवों को समझाने की मुख्यता से यह शास्त्र नहीं रचा है।
वे आगे कहते हैं कि वीतरागी गुरु के प्रसाद से जिनेन्द्रदेव के उपदेश को जानकर मैंने यह शास्त्र बनाया है। ऐसा कहकर आचार्यदेव मूलरूप से सर्वज्ञदेव की परम्परा की घोषणा कर रहे हैं।
क्रियाकाण्ड अर्थात् क्रियाओं का समूह । जो शरीरादि की क्रियायें होती हैं, वे जड़क्रियाकाण्ड हैं। वे आत्मा के धर्म की अथवा पुण्यपाप की कारण नहीं हैं। आत्मा में पुण्य-पाप के भाव होते हैं, वह विकारी क्रियाकाण्ड है; उससे धर्म नहीं होता है; परन्तु वह बंध का कारण है। आत्मा के परमस्वभाव के आश्रय से जो सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र. निश्चय प्रत्याख्यान आदि वीतरागी क्रिया प्रगट होती है, वह धर्म का क्रियाकाण्ड है. वह मोक्ष का कारण है। इस परमार्थ क्रियाकाण्ड का इस शास्त्र में बहत वर्णन किया है। तथा शुभ-अशुभ तथा शुद्ध - ऐसे तीन प्रकार के उपयोग का वर्णन भी इसमें आ जाता है। इन तीनों में शुद्धोपयोग आत्मा के केवलज्ञान का कारण हैं।'
तथा यह शास्त्र समस्त नयों के समूह से शोभित है। निश्चय और व्यवहार नयों का इसमें अनेक भेदों से कथन किया गया है।
आचार्यदेव ने १८७ गाथाओं में बहुत मर्म भर दिया है। १+८+७
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१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १५५४ ३. वही, पृष्ठ १५५५
२. वही, पृष्ठ १५५४-१५५५ ४. वही, पृष्ठ १५५८-१५५९