________________
नियमसार अनुशीलन "अहो ! यह अलौकिक निर्ग्रन्थ मार्ग है। कोई उसकी ईर्ष्या से निन्दा करता है तो उसके सामने देखना ही नहीं। वीतरागमार्ग के प्रति अपनी भक्ति बनाये रखना। जिसप्रकार बच्चे को शिक्षा देते हैं; उसीप्रकार कुन्दकुन्द भगवान भव्यजीव को शिक्षा देते हैं कि हे भव्य ! तुम ध्यान रखना । जो यह मोक्ष का मार्ग कहा है, उसके अलावा अन्य कोई मोक्ष का मार्ग जगत में नहीं है। अहो! ऐसा स्पष्ट है मोक्षमार्ग। फिर भी जगत के जीव उसे क्यों नहीं मानते और ईर्ष्या से उसकी निन्दा क्यों करते हैं?
जगत के जीव निर्ग्रन्थ मोक्षमार्ग की निन्दा करते हैं तो तू उनके सामने देखकर भटकना नहीं; परन्तु तू अपने आत्मा में निर्ग्रन्थ मोक्षमार्ग की भक्ति टिकाकर मोक्षमार्ग साधना इसप्रकार आचार्य भगवान ने भव्यजीवों को शिक्षा दी है।
इस नियमसार ग्रन्थ में आचार्यदेव ने मोक्षमार्ग और मोक्ष का बहुत अलौकिक वर्णन किया है। अन्त में वे भव्यजीवों को शिक्षा देते हैं कि अहो ! शुद्धरत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग है। ऐसी वीतरागी मोक्षमार्ग को नहीं समझनेवाला जीव ईर्ष्या से उसकी निन्दा करता है तो उसे सुनकर धर्मात्मा जीवों को जिनमार्ग में अभक्ति नहीं करना चाहिए; क्योंकि जिनमार्ग की श्रद्धा ही कर्त्तव्य है।
२८४
देखो ! मोक्षमार्ग कहो, स्वभाव का अवलंबन कहो, क्रमबद्धपर्याय का निर्णय कहो, शुद्धरत्नत्रय कहो, जैनमार्ग कहो ह्र नाम भले ही कुछ भी दो; पर इसकी प्राप्ति का एक ही उपाय है और वह उपाय है अपने त्रिकाली कारणपरमात्मा का आश्रय करके उसकी श्रद्धा, ज्ञान और आचरण करना । यही मोक्षमार्ग है। २"
उक्त गाथा और उसकी टीका में अत्यन्त करुणाभाव से आचार्यदेव एवं टीकाकार मुनिराज कह रहे हैं कि हे भव्यजीवो ! इस जगत में ऐसे अज्ञानियों की कमी नहीं है कि जो ईर्ष्याभाव के कारण एकदम सच्चे
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १५३९
२. वही, पृष्ठ १५४१
143
गाथा १८६ : शुद्धोपयोगाधिकार
२८५
रत्नत्रयरूप धर्म की निन्दा करते देखे जाते हैं; उनके भड़कावे में आकर, उनके मुख से इस पवित्रमार्ग की निन्दा सुनकर बिना विचार किये पवित्र मार्ग से च्युत नहीं हो जाना; अन्यथा तुम्हें भव-भव में भटक कर अनंत दुःख उठाने पड़ेंगे। सभी आत्मार्थी भाई बहिनों को आचार्यदेव उक्त करुणा से सने वचनों पर ध्यान देना चाहिए, उनकी शिक्षा का पूरी तरह से पालन करना चाहिए || १८६ ॥
इसके बाद टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव दो छन्द लिखते हैं; जिनमें से पहला छन्द इसप्रकार है ह्र
( शार्दूलविक्रीडित ) देहव्यूहमहीजराजिभयदे दुःखावलीश्वापदे विश्वाशातिकरालकालदहने शुष्यन्मनीयावने' । नानादुर्णयमार्गदुर्गमतमे दृङ्मोहिनां देहिनां जैनं दर्शनमेकमेव शरणं जन्माटवीसंकटे ।। ३०६ ।। ( हरिगीत )
देहपादपव्यूह से भयप्रद बसें वनचर पशु । कालरूपी अग्नि सबको दहे सूखे बुद्धिजल ।। अत्यन्त दुर्गम कुनयरूपी मार्ग में भटकन बहुत ।
इस भयंकर वन विषै है जैनदर्शन इक शरण ||३०६ || देहरूपी वृक्षों की पंक्ति की व्यूहरचना से भयंकर, दु:खों की पंक्ति रूपी जंगली पशुओं का आवास, अति करालकालरूपी अग्नि जहाँ सबको सुखाती है, जलाती है और जो दर्शनमोह युक्त जीवों को अनेक कुनयरूपी मार्गों के कारण अत्यन्त दुर्गम है; उस जन्मरूपी भयंकर जंगल के विकट संकट में जैनदर्शन ही एक शरण है ।
आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस छन्द के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
"संसार में राजा और रंक दोनों दुःखी हैं। स्वर्ग के देव भी आकुलता
१. यहाँ कुछ अशुद्धि प्रतीत होती है