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नियमसार गाथा १८३ विगत गाथा में सिद्ध भगवान का स्वरूप समझाया था और अब इस गाथा में यह कह रहे हैं कि निर्वाण ही सिद्धत्व है और सिद्धत्व ही निर्वाण है। गाथा मूलत: इसप्रकार है ह्र
णिव्वाणमेव सिद्धा सिद्धा णिव्वाणमिदिसमुद्दिट्ठा। कम्मविमुक्को अप्पा गच्छइ लोयग्गपज्जतं ।।१८३।।
(हरिगीत) निर्वाण ही सिद्धत्व है सिद्धत्व ही निर्वाण है।
लोकाग्र तक जाता कहा है कर्मविरहित आतमा ||१८३|| निर्वाण ही सिद्ध है और सिद्ध ही निर्वाण है ह्र ऐसा शास्त्रों में कहा गया है। कर्म से मुक्त आत्मा लोकाग्र पर्यन्त अर्थात् सिद्धशिला तक जाता है।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
"यह सिद्धि और सिद्ध के एकत्व के प्रतिपादन की प्रवीणता है।
यह निर्वाण शब्द का प्रयोग दो अर्थों में हुआ है। यदि कोई कहे कि किसप्रकार तो उसके उत्तर में कहते हैं कि 'निर्वाणमेव सिद्धा ह्र निर्वाण ही सिद्ध हैं' ह्र इस आगम के वचन से यह बात सिद्ध होती है। 'सिद्ध भगवान सिद्धक्षेत्र में रहते हैं ह्र ऐसा व्यवहार है। निश्चय से तो सिद्ध भगवान निज स्वरूप में ही रहते हैं; इसकारण 'निर्वाण ही सिद्ध है
और सिद्ध ही निर्वाण है' ह इसप्रकार निर्वाण शब्द और सिद्ध शब्द में एकत्व सिद्ध हुआ।
दूसरी बात यह है कि कोई आसन्न भव्य जीव परमगुरु के प्रसाद से प्राप्त परमभाव की भावना द्वारा सम्पूर्ण कर्मकलंकरूपी कीचड़ से मुक्त होते हैं; वे आसन्नभव्यजीव परमात्मतत्त्व प्राप्त कर लोक के अग्र भाग तक जाते हैं, सिद्धशिला तक पहुँचकर अनन्त काल तक के लिए वहीं ठहर जाते हैं।"
गाथा १८३ : शुद्धोपयोगाधिकार
२७७ इस गाथा में निर्वाण ही सिद्धत्व है और सिद्धत्व ही निर्वाण है ह यह निर्वाण और सिद्धत्व में एकत्व स्थापित किया गया है। गाथा की दूसरी पंक्ति में यह कहा गया है कि आत्मा की आराधना करनेवाले पुरुष अष्टकर्मों का अभाव करके लोकान में जाकर ठहर जाते हैं, अनन्त काल तक के लिए वहीं विराजमान हो जाते हैं।।१८३।।
इसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव एक छन्द लिखते हैं; जो इसप्रकार है ह्र
(मालिनी) अथ जिनमतमुक्तेर्मुक्तजीवस्य भेदं
क्वचिदपि न च विद्मो युक्तितश्चागमाच्च । यदि पुनरिह भव्यः कर्म निर्मूल्य सर्वं स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः ।।३०३।।
(रोला) जिनमत संमत मुक्ति एवं मुक्तजीव में।
हम युक्ति आगम से कोई भेद न जाने ॥ यदि कोई भवि सब कर्मों का क्षय करता है।
तो वह परमकामिनी का वल्लभ होता है।।३०३।। जैनदर्शन में मुक्ति और मुक्त जीव में युक्ति और आगम से हम कहीं भी कोई भेद नहीं देखते। इस लोक में यदि कोई भव्य जीव सर्व कर्मों का निर्मूलन करता है तो भव्यजीव मुक्तिलक्ष्मीरूपी वल्लभा का वल्लभ होता है।
इस छन्द में यह कहा गया है कि मुक्ति और मुक्त जीव में हमें कोई अन्तर दिखाई नहीं देता। तात्पर्य यह है कि ये दोनों एक ही हैं। जो भव्यजीव अष्टकर्मों का नाश करते हैं; वे भव्यजीव मुक्तिरूपी लक्ष्मी के पति होते हैं, मुक्ति को प्राप्त करते हैं।।३०३।।
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भगवान स्वरूप अपने आत्मा पर रीझे पुरुषों के गले में ही मुक्तिरूपी कन्या वरमाला डालती है। ह्र आत्मा ही है शरण, पृष्ठ-२०२