Book Title: Niyamsara Anushilan
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 138
________________ नियमसार गाथा १८२ विगत गाथाओं में यह कहा था कि परमतत्त्व ही निर्वाण है और अब इस गाथा में उक्त निर्वाण अर्थात् सिद्ध भगवान के स्वरूप को स्पष्ट करते हैं। गाथा मूलत: इसप्रकार है ह्न विज्जदिकेवलणाणं केवलसोक्खंच केवलं विरियं । केवलदिट्ठि अमुत्तं अत्थित्तं सप्पदेसत्तं ।।१८२।। (हरिगीत ) अरे केवलज्ञानदर्शन नंतवीरजसुख जहाँ। अमूर्तिक अर बहुप्रदेशी अस्तिमय आतम वहाँ ।।१८।। सिद्ध भगवान के केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलसुख और केवल वीर्य तथा अमूर्तत्व, अस्तित्व और सप्रदेशत्व होते हैं। इस गाथा के भाव को टीकाकार मनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र "यह सिद्ध भगवान के स्वभावगुणों के स्वरूप का कथन है। सम्पूर्णतः अन्तर्मुखाकार स्वात्माश्रित निश्चयपरमशुक्लध्यान के बल से ज्ञानावरणादि आठ कर्मों का विलय होने पर; उक्त कारण से सिद्ध भगवान के केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलसुख और केवलवीर्य और अमूर्तत्व, अस्तित्व तथा सप्रदेशत्व आदि स्वभावगुण होते हैं।" स्वामीजी इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न “यह भगवान सिद्ध के स्वाभाविक गुणों का कथन है। सिद्धों का वर्णन करते हुए उन्होंने निर्वाण किसप्रकार प्राप्त किया - यह बात भी साथ में कह रहे हैं। सिद्ध भगवान के आत्मा ने पूर्व में संसार अवस्था में आत्मा की अन्तर्मुखदृष्टि की थी, तत्पश्चात् स्वरूप में एकाग्रता की थी - इसप्रकार एकाग्रतारूप चारित्र से सर्वथा अन्तर्मुख होकर वे भगवान बन गये, तब ज्ञानावरणादि आठ कर्मों का क्षय हुआ और केवलज्ञानादि प्रगट हुए। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १५१९ गाथा १८२ : शुद्धोपयोगाधिकार २७५ भाई! शुक्लध्यान का स्वरूप अन्तर्मुखपना है। इस शुक्लध्यान के बल से भगवान होते हैं। परन्तु बाह्य आहारादि छोड़ने से या आहार छोड़ने के विकल्प से सिद्धदशा नहीं होती है। यह सिद्ध होने का उपाय है, सर्वप्रथम इसे बराबर जानना चाहिए।' मूलपाठ में कार्य परमात्मा की बात की है; परन्तु टीका में कारणपरमात्मा की बात भी साथ में समझाई है। - यह टीकाकार की मौलिक शैली है।" इस गाथा में सिद्ध भगवान के अनन्त चतुष्टय और अमूर्तत्व, अस्तित्व और सप्रदेशत्व की चर्चा है। टीका में यह भी स्पष्ट किया गया है कि इन गुणों की प्राप्ति निश्चय परम शुक्लध्यान के बल से होती है॥१८२॥ इसके बाद टीकाकार मुनिराज एक छन्द लिखते हैं, जो इसप्रकार हैह्न (मंदाक्रांता) बन्धच्छेदाद्भगवति पुनर्नित्यशुद्ध प्रसिद्ध तस्मिन्सिद्धे भवति नितरां केवलज्ञानमेतत् । दृष्टिः साक्षादखिलविषया सौख्यमात्यंतिकंच शक्त्याद्यन्यद्गुणमणिगणंशुद्धशुद्धश्च नित्यम् ।।३०२।। (रोला) बंध-छेद से नित्य शुद्ध प्रसिद्ध सिद्ध में। ज्ञानवीर्यसुखदर्शन सब क्षायिक होते हैं।। गुणमणियों के रत्नाकर नित शुद्ध शुद्ध हैं। सब विषयों के ज्ञायक दर्शक शुद्ध सिद्ध हैं।।३०२।। त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा और नित्य शुद्ध प्रसिद्ध सिद्धपरमेष्ठी में बंधछेद के कारण सदा के लिए केवलज्ञान होता है, सभी को देखनेवाला केवलदर्शन होता है, अनन्तसुख होता है और शुद्ध-शुद्ध अनन्तवीर्य आदिक अनन्त गुणमणियों समूह होता है। जो बात गाथा में कही गई है, उसी बात को इस छन्द में दुहरा दिया गया है।।३०२।। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १५२१ २. वही, पृष्ठ १५२२ 138

Loading...

Page Navigation
1 ... 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165