Book Title: Niyamsara Anushilan
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 136
________________ नियमसार गाथा १८१ विगत दो गाथाओं में परमपारिणामिकभावरूप परमतत्त्व ही निर्वाण है ह यह कहा गया है। इस गाथा में भी उसी बात को आगे बढ़ा रहे हैं। गाथा मूलत: इसप्रकार है तू णवि कम्मंणोकम्मंणवि चिंता णेव अट्टरुद्दाणि । णवि धम्मसुक्कझाणे तत्थेव य होइ णिव्वाणं ।।१८१।। (हरिगीत) कर्म अर नोकर्म चिन्ता आर्त रौद्र नहीं जहाँ। ध्यान धरम शुकल नहीं निर्वाण जानो है वहाँ ।।१८१|| जहाँ कर्म और नोकर्म नहीं हैं, चिन्ता नहीं है, आर्त और रौद्र ध्यान नहीं है तथा धर्म और शुक्लध्यान भी नहीं है; वहाँ निर्वाण है। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह “यह सर्व कर्मों से विमुक्त तथा शुभ, अशुभ और शुद्धध्यान तथा ध्येय के विकल्पों से मुक्त परमतत्त्व के स्वरूप का व्याख्यान है। जहाँ (जिस परमतत्त्व में) सदा निरंजन होने से आठ द्रव्यकर्म नहीं हैं; त्रिकाल निरुपाधि स्वभाववाला होने से पाँच प्रकार के नोकर्म (शरीर) नहीं हैं; मन रहित होने के कारण चिन्ता नहीं है; औदयिकादि विभाव भावों का अभाव होने से आर्त और रौद्र ध्यान नहीं है तथा धर्मध्यान और शुक्लध्यान के योग्य चरम शरीर न होने से ये दोनों उत्कृष्ट ध्यान भी नहीं है; वहाँ ही महानंद है।" आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा और उसकी टीका का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “सिद्ध भगवान में शरीर, वाणी, कर्म नहीं हैं; क्योंकि जो मूलतत्त्व में नहीं है, वह उनमें से निकल गया है। संसार अवस्था में आत्मा का जो पर के साथ निमित्त-नैमित्तिक संबंध होता है, वह सिद्धपर्याय में गाथा १८१ : शुद्धोपयोगाधिकार २७१ नहीं है तथा आत्मा में चिन्ता भी नहीं है; अतः सिद्धदशा होने पर वह पर्याय से भी निकल जाती है। चिन्ता मोक्षमार्ग में भी नहीं है। आर्तध्यान और रौद्रध्यान - ये दोनों ध्यान आत्मा के स्वभाव में नहीं हैं तथा जितना मोक्षमार्ग प्रगट हुआ है, उसमें भी ये दोनों ध्यान नहीं हैं तथा सिद्धपर्याय में तो सर्वथा ही नहीं हैं। भगवान ने विकारी पर्याय को नष्ट कर मुक्तदशा को प्राप्त किया है, यह निर्वाण है। सिद्धशिला पर जाना निर्वाण नहीं है; क्योंकि वहाँ तो निगोदिया जीव भी हैं; उन्हें तो मोक्ष नहीं होता; अतः क्षेत्र के कारण मोक्ष नहीं होता। ___भाई ! आत्मा में पूर्णशुद्धपर्याय का प्रगट होना मोक्ष है। धर्मध्यान निचलीदशा में होता है और शुक्लध्यान चौदहवें गुणस्थान तक होता है; परन्तु सिद्धों में ध्यान नहीं होता। परमतत्त्व अर्थात् सिद्धपरमात्मतत्त्व तथा त्रिकाली आत्मतत्त्व - दोनों की यहाँ बात करते हैं। परमतत्त्व सदा निरंजन होने के कारण उसमें आठ द्रव्यकर्म नहीं हैं। आठ कर्म तो जड़ हैं, वे आत्मा में नहीं हैं। वे निमित्तरूप से संसारी जीवों के होते हैं। सिद्धों के निमित्तरूप से भी नहीं होते हैं। तीनों काल निरुपधि स्वरूपवाला होने से परमतत्त्व के पाँच प्रकार का शरीर नहीं है। जितने सिद्ध हुए हैं, हो रहे हैं और होंगे; उन सभी के पाँचों ही प्रकार के शरीर नहीं हैं। तथा आत्मा मनरहित होने से उसे चिन्ता नहीं है। एक समय की पर्याय में, संसारदशा में, विकल्प में मन निमित्त होता है; परन्तु त्रिकाली तत्त्व को मन का सम्बन्ध नहीं है। इसप्रकार सिद्धों के मन नहीं है; अतः उन्हें चिन्ता भी नहीं है। औदयिक आदि चार विभावभाव आत्मा में नहीं हैं; अतः उसमें आर्त और रौद्र ध्यान भी नहीं है।' भाई ! सिद्धदशा में ही महा-आनन्द है। चारों ही प्रकार के ध्यान सिद्धों के नहीं हैं। शुक्लध्यान उत्कृष्ट ध्यान है, इसके योग्य चरमशरीर 136 १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १५१४-१५१५ २. वही, पृष्ठ १५१५

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