Book Title: Niyamsara Anushilan
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 135
________________ २६८ नियमसार अनुशीलन महिमा बताते हुए कहा जाता है कि गुरु के चरणकमल की सेवा से धर्म प्राप्त किया। भाई! ज्ञानीजीव को भी गुरु के बहुमानरूप शुभभाव होता है - ऐसी पात्रता बिना और सच्चे गुरु के निमित्त मिले बिना काम होनेवाला नहीं है। ऐसा समझकर स्वभाव का आश्रय करने पर अन्तर- अनुभव प्राप्त होता है। " इस छन्द में ज्वर, जरा, जन्म और मरण की वेदना से रहित, गतिआगति से रहित निज भगवान आत्मारूप परमतत्त्व को तन में स्थित होने पर भी निर्मल चित्तवाले पुरुष गुणों से महान गुरु के चरणों की सेवा के प्रसाद से प्राप्त कर लेते हैं। तात्पर्य यह है कि देशनालब्धिपूर्वक सम्यक् पुरुषार्थ के बल से आत्मार्थी पुरुष निज आत्मा को प्राप्त कर लेते हैं ||८७॥ इसके बाद टीकाकार मुनिराज 'तथा हि' लिखकर एक छन्द स्वयं लिखते हैं; जो इसप्रकार है ह्र ( मंदाक्रांता ) यस्मिन् ब्रह्मण्यनुपमगुणालंकृते निर्विकल्पेऽक्षानामुच्चैर्विविधविषमं वर्तनं नैव किंचित् । नैवान्ये वा भविगुणगणाः संसृतेर्मूलभूता: तस्मिन्नित्यं निजसुखमयं भाति निर्वाणमेकम् ।। ३०० ।। (रोला ) अनुपम गुण से शोभित निर्विकल्प आतम में । अक्षविषमवर्तन तो किंचित्मात्र नहीं है । भवकारक गुणमोह आदि भी जिसमें न हों। उसमें निजगुणरूप एक निर्वाण सदा है || ३००॥ अनुपम गुणों से अलंकृत और निर्विकल्प ब्रह्म में इन्द्रियों का अति विविध और विषम वर्तन किंचित् मात्र भी नहीं है तथा संसार के मूलभूत अन्य मोह-विस्मयादि सांसारिक गुण समूह नहीं है; उस ब्रह्म में सदा निज सुखमय एक निर्वाण शोभायमान है। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १५०९ २. वही, पृष्ठ १५१० 135 गाथा १८० : शुद्धोपयोगाधिकार २६९ आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस छन्द का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं “आत्मा के गुण अनुपम हैं, उपमारहित हैं । ज्ञायकस्वरूप आत्मा में पाँच इन्द्रियों का व्यापार नहीं है, वह तो राग-द्वेषादि समस्त व्यापार से रहित है; क्योंकि आत्मा अतीन्द्रिय पदार्थ है । उसका आदर करके, संसारदोष दूरकर जिसने परमात्मदशा प्रगट की है; उसे इन्द्रियों की विविधता और विषमता नहीं है । इन्द्रियाँ आत्मा को स्पर्शती ही नहीं है । " आत्मतत्त्व में संसार के मूलभूत अन्य मोहविस्मयादि संसारी गुणसमूह नहीं हैं। शुभाशुभभाव जो सांसारिक गुण हैं; वस्तुतः वे दोष हैं। जिसप्रकार चिरायता बहुत कड़वा होता है; फिर भी उसे गुणवान कहा जाता है; उसीप्रकार संसार में रखड़ने का भाव हो तो वह संसार के लिए तो गुण ही है; पर मोक्ष के लिए दोष है। आत्मतत्त्व में सदा निज सुखमय एक निर्वाण प्रकाशमान है। निर्वाण चिदानन्द आत्मा का एक ही स्वरूप है; उसमें सदा आनन्द है । ज्ञानी जीव को पर्याय में जितना परद्रव्य का अवलंबन है, उतना दुःख है और जितना स्व का अवलंबन है, उतना सुख है। अज्ञानी पूर्ण दुःखी है और सिद्ध पूर्ण सुखी हैं। भाई ! चिदानन्द आत्मा में निर्वाण प्रकाशमान है। यह मोक्षरूप शक्ति की बात है। यह जीव इस शक्ति की प्रतीति कर ले तो इसे पर्याय में भी निर्वाण की प्राप्ति हो जाये।" इस छन्द में यह कहा गया है कि इन्द्रियों के विविध प्रकार के विषम वर्तन से रहित, अनुपम गुणों से अलंकृत, संसार के मूल (जड़) मोह-राग-द्वेषादि सांसारिक गुणों (दोषों) से रहित निज निर्विकल्पक आत्मा में निर्वाण (मुक्ति) सदा विद्यमान ही है ।। ३०० ।। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १५१२ ३. वही, पृष्ठ १५१३ २. वही, पृष्ठ १५१२ ४. वही, पृष्ठ १५१३

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