Book Title: Niyamsara Anushilan
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 128
________________ २५४ नियमसार अनुशीलन ध्रव स्वभाव में संसार नहीं है। पर्याय में मात्र एक समय का ही संसार है। यदि वस्तु में संसार हो तो संसार का कभी नाश ही न हो। उसके अवलंबन से सिद्ध भगवान ने पूर्णदशा पाई है। यह सिद्ध परमात्मा का वर्णन करते हुए, सिद्धदशा जिसके अवलंबन से हुई है - उस कारणतत्त्व की व्याख्या की है; क्योंकि आत्मा का जैसा स्वभाव है, वैसी पूर्णदशा सिद्धभगवान को प्रगट हो गई है।" उक्त गाथा में त्रिकाली ध्रुव कारणपरमतत्त्व के, कारणपरमात्मा के जो भी विशेषण दिये गये हैं; टीकाकार ने उन सभी को कारण सहित परिभाषित किया है। वे विशेषण टीका में पूरी तरह स्पष्ट हो गये हैं; अत: कुछ विशेष लिखने की आवश्यकता नहीं है।।१७७।। इसके बाद टीकाकार एक छन्द लिखते हैं; जो इसप्रकार है ह्र (मालिनी) अविचलितमखंडज्ञानमद्वन्द्वनिष्ठं निखिलदुरितदुर्गव्रातदावाग्निरूपम् । भज भजसि निजोत्थं दिव्यशर्मामृतं त्वं सकलविमलबोधस्तेभवत्येव तस्मात् ।।२९६।। (वीर) राग-द्वेष के द्वन्द्वों में जो नहीं रहे अघनाशक है। अरिवल पापवन के समूह को दावानल सम दाहक है।। अविचल और अखण्ड ज्ञानमय दिव्य सुखामृतधारक है। अरे भजो निज आतम को जो विमलबोध का दायक है।।२९६।। अविचल, अखण्डज्ञानरूप, अद्वन्द्वनिष्ठ और सम्पूर्ण पाप के दुस्तर समूह को जलाने के लिए दावानल के समान स्वयं से उत्पन्न दिव्यसुख रूपी अमृतरूप भजने योग्य आत्मतत्त्व को भजो, आत्मतत्त्व का भजन करो; क्योंकि उससे ही तुम्हें सम्पूर्णत: निर्मल केवलज्ञान प्राप्त होगा। उक्त छंद में अपने आत्मतत्त्व को भजने की प्रेरणा दी गई है।।२९६।। नियमसार गाथा १७८ जिस कारणपरमतत्त्व की चर्चा विगत गाथा में की गई थी, इस गाथा में भी उसी परमतत्त्व की बात कही जा रही है। गाथा मूलत: इसप्रकार है ह्न अव्वाबाहमणिंदियमणोवमं पुण्णपावणिम्मुक्कं । पुणरागमणविरहियं णिच्चं अचलं अणालंबं ।।१७८।। (हरिगीत ) पुणपापविरहित नित्य अनुपम अचल अव्याबाध है। अनालम्ब अतीन्द्रियी पुनरागमन से रहित है।।१७८|| वह कारणपरमतत्त्व; अव्याबाध है, अतीन्द्रिय है, अनुपम है, पुण्यपाप से रहित है, पुनरागमन से रहित है, नित्य है, अचल है और अनालंबी है। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं त ___ “यहाँ भी निरुपाधिस्वरूप है लक्षण जिसका ह्र ऐसा परमात्मतत्त्व ही कहा जा रहा है। वह परमात्मतत्त्व; सम्पूर्ण पुण्य-पापरूप दुष्ट अघरूपी वीर शत्रुओं की सेना के उपद्रवों को अगोचर सहजज्ञानरूपी गढ़ में आवास होने के कारण अव्याबाध है; सर्व आत्मप्रदेशों में भरे हुए चिदानन्दमय होने से अतीन्द्रिय हैं; बहिरात्मतत्त्व, अन्तरात्मतत्त्व और परमात्वतत्त्व ह इन तीनों में विशिष्ट होने के कारण अनुपम है; संसाररूपी स्त्री के संभोग से उत्पन्न होनेवाले सुख-दुख का अभाव होने के कारण पुण्य-पाप से रहित है; पुनरागमन के हेतुभूत प्रशस्त-अप्रशस्त मोहराग-द्वेष का अभाव होने के कारण पुनरागमन से रहित हैं; नित्यमरण (प्रतिसमय होनेवाले मरण) तथा उस भवसंबंधी मरण के कारणभूत शरीर के संबंध का अभाव होने के कारण नित्य है; निजगुणों और पर्यायों से च्युत न होने के कारण अचल है और परद्रव्य के अवलम्बन का अभाव होने के कारण अनालम्ब है।" 128 १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १४७०

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