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नियमसार अनुशीलन (अनुष्टुभ् ) ज्ञानस्वभाव: स्यादात्मा स्वभावावाप्तिरच्युतिः। तस्मादच्युतिमाकांक्षन् भावयेज्ज्ञानभावनाम् ।।८२।।'
(दोहा) ज्ञानस्वभावी आतमा स्वभावप्राप्ति है इष्ट |
अत: मुमुक्षु जीव को ज्ञानभावना इष्ट ||८२|| आत्मा ज्ञानस्वभावी है। स्वभाव की प्राप्ति अच्युति (अविनाशी दशा) है। अत: अच्युति को चाहनेवाले जीव को ज्ञान की भावना भानी चाहिए।
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस छन्द का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
“यहाँ कहते हैं कि आत्मा ज्ञानस्वभावी है और स्वभाव की प्राप्ति अच्युति है; अतः अच्युतदशा को चाहनेवाले ज्ञान की भावना करें। ___ ज्ञान-स्वभावी आत्मा के अवलंबन से होनेवाला मोक्ष अविनाशी है। पुण्य-पाप नाशवान हैं, वे च्युत अर्थात् आत्मा की भ्रष्ट दशायें हैं। आत्मा अखण्डानन्दस्वरूप है, उसमें एकाग्र होना धर्म है; अतः धर्म के इच्छुक आत्मा में एकाग्र हों तथा पुण्य-पाप से एकाग्रता छोडें । यहाँ धर्म का अर्थ सम्यग्दर्शन है
यहाँ ज्ञान की भावना भाने को कहा अर्थात् शास्त्र की, पर की भावना भाने की बात नहीं की; परन्तु अन्तर में विराजमान अखण्ड ज्ञानस्वभावी गुणी में एकाग्र होने की बात की है।
जो क्रिया सिद्धदशा को प्राप्त कराये और नाश न हो - वह क्रिया सच्ची है। पुण्य-पाप अच्युत क्रिया नहीं हैं। दृष्टि में गुण-गुणी की अभेदता करना धर्म की क्रिया है। पर को करने और भोगने की सामर्थ्य आत्मा में नहीं है। पुण्य-पाप की क्रिया से धर्म नहीं होता, धर्म तो अन्तर-भावना के अवलंबन से होता है। स्वभाव में एकाग्रता करना
गाथा १७० : शुद्धोपयोगाधिकार
२२९ ही धार्मिक क्रिया है। शेष सभी क्रियायें चार गति में भटकाने वाली हैं। अरे रे! जब तक पूर्णदशा प्राप्त नहीं होती, तबतक शुभभाव की क्रिया होती तो है; परन्तु वह धर्म नहीं है। यही सर्वज्ञ कथित मार्ग है भाई!"
उक्त छन्द का भाव यह है कि ज्ञानस्वभावी भगवान आत्मा को स्वभाव की प्राप्ति, अच्युति अर्थात् अविनाशी दशा है। उक्त अविनाशी दशा की प्राप्ति करने की भावना रखनेवालों का यह परम कर्तव्य है कि वे सदा स्वभाव की प्राप्ति की भावना रखें ।।८२।।
इसके बाद टीकाकार मुनिराज एक छन्द स्वयं लिखते हैं, जो इसप्रकार है ह्न
(मंदाक्रांता) ज्ञानं तावद्भवति सुतरां शुद्धजीवस्वरूपं स्वात्मात्मानं नियतमधुना तेन जानाति चैकम् । तच्च ज्ञानं स्फुटितसहजावस्थयात्मानमारात् नोजानाति स्फुटमविचलाद्भिन्नमात्मस्वरूपात् ।। २८६ ।।
(रोला) शद्धजीव तो एकमात्र है ज्ञानस्वरूपी। ___ अत: आतमा निश्चित जाने निज आतम को॥ यदि साधक न जाने स्वातम को प्रत्यक्ष तो।
ज्ञान सिद्ध हो भिन्न निजातम से हे भगवन ||२८६|| ज्ञान तो शुद्धजीव का स्वरूप ही है। अतः हमारा आत्मा भी अभी साधक दशा में एक अपने आत्मा को अवश्य जानता है। यदि यह ज्ञान प्रकट हुई सहज दशा द्वारा प्रत्यक्ष रूप से आत्मा को न जाने तो वह ज्ञान अविचल आत्मस्वरूप से भिन्न ही सिद्ध होगा।
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस छन्द के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
“साधकदशा में यद्यपि पुण्य-पाप के विकल्प उठते हैं; तथापि
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१. आत्मानुशासन, छन्द १७४
२. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १४२६
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १४२७