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नियमसार गाथा १७२ विगत गाथा में ज्ञान और आत्मा में अभेद बताया था और अब इस गाथा में यह बता रहे हैं कि सर्वज्ञ-वीतरागी भगवान के इच्छा का अभाव है। गाथा मूलत: इसप्रकार है ह्र
जाणतो पस्संतो ईहापुव्वं ण होइ केवलिणो। केवलिणाणी तम्हा तेण दु सोऽबंधगो भणिदो।।१७२।।
(हरिगीत) जानते अर देखते इच्छा सहित वर्तन नहीं।
बस इसलिए हैं अबंधक अर केवली भगवान वे||१७२।। जानते और देखते हुए भी केवली भगवान के इच्छापूर्वक वर्तन नहीं होता; इसलिए उन्हें केवलज्ञानी कहा है और इसीलिए उन्हें अबंध कहा गया है।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
“यहाँ सर्वज्ञ-वीतरागी भगवान के इच्छा का अभाव होता है ह्र यह कहा गया है।
भगवान अरहंत परमेष्ठी सादि-अनन्त, अमूर्त, अतीन्द्रिय स्वभाव वाले, शुद्धसद्भूत व्यवहारनय से केवलज्ञानादि शुद्ध गुणों के आधारभूत होने के कारण विश्व को निरन्तर जानते हुए भी और देखते हुए भी, उन परम भट्टारक केवली भगवान को मनप्रवृत्ति का अभाव होने से इच्छापूर्वक वर्तन नहीं होता, इसलिए वे भगवान केवलज्ञानीरूप से प्रसिद्ध हैं और उस कारण से वे भगवान अबन्धक हैं।"
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा और उसकी टीका के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र ___ “वीतरागदशा तो बारहवें गुणस्थान में ही हो जाती है; अतः भगवान को मोक्ष की इच्छा भी नहीं होती है। जो ऐसा मानता है कि
गाथा १७२ : शुद्धोपयोगाधिकार
२३५ भगवान के इच्छा होती है, वह वीतराग के स्वरूप को नहीं जानता है। भगवान के भावमन (क्षायोपशमिक ज्ञान) नहीं है। उनके हृदय में द्रव्यमन है; परन्तु उसमें इच्छापूर्वक उपयोग का जुड़ान नहीं है। वे अन्य जीवों को दीक्षा, शिक्षा, इच्छापूर्वक नहीं देते । मात्र जानने-देखने का स्वभाव होने से समस्त लोकालोक को जानते और देखते हैं। इच्छा हो तभी जानें - ऐसा नहीं है। उनके योग का कंपन होता है। एक समय में कर्म, नोकर्म आते-जाते हैं। अतः भगवान के बंध नहीं कहा है। योग के कंपन के समय मन निमित्त है; परन्तु भगवान के इच्छा नहीं होती; अतः इसमें मन निमित्त नहीं है। अतः भगवान के बंध नहीं होता।
निश्चयनय का विषय तो त्रिकाली स्वभाव है, उसमें से प्रगट होने वाली पूर्ण केवलज्ञानरूपी दशा व्यवहार है। वह शुद्ध और नवीन है; अतः व्यवहार है - ऐसा कहकर केवली के नय होते हैं, यह नहीं सिद्ध कर रहे; क्योंकि केवली के समझने-समझाने का व्यवहार नहीं होता। ___नय तो श्रुतज्ञानी के होते हैं। साधकजीव केवलज्ञानरूप पूर्णदशा को लक्ष में लेता है, वह पूर्णदशा शुद्ध है और अखण्ड आत्मा में शुद्ध पर्याय का भेद किया; अतः वह शुद्धसद्भूत व्यवहार है। निश्चय में एकरूपता होती है। त्रिकाली तत्त्व अभेद एकरूप है; अतः निश्चयनय का विषय है। साधकजीव जब निज स्वभाव का अवलंबन लेता है, तब शुद्धदशा प्रगट होती है। वह व्यवहार का तो ज्ञान करता है; परन्तु आश्रय तो त्रिकाली निश्चयस्वभाव का करता है।
त्रिकाली द्रव्य के लक्ष से जो शुद्धपर्याय प्रगट हुई, वह निश्चयनय का विषय नहीं है. वह व्यवहार का विषय है। ज्ञानी को उसका आश्रय नहीं होता है।
इसीप्रकार महावीर भगवान के समोशरण में गौतम आये; अतः उनकी वाणी खिरी - ऐसा नहीं है। भगवान को इच्छा नहीं थी कि मैं
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१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १४३६ २. वही, पृष्ठ १४३७