Book Title: Niyamsara Anushilan
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 119
________________ २३६ नियमसार अनुशीलन गौतम को उपदेश दूँ। भगवान तो तीन काल और तीन लोक की बात को जान ही रहे हैं। " इस गाथा और उसकी टीका में यह कहा गया है कि यद्यपि केवली भगवान शुद्धसद्भूत व्यवहारनय से अर्थात् अनुपचरित सद्भूत व्यवहारनय से सम्पूर्ण जगत को देखते जानते हैं; तथापि उनके मन की प्रवृत्ति का अभाव होने से, भाव मन के अभाव होने से इच्छा का अभाव होता है, इच्छापूर्वक वर्तन नहीं होता है; यही कारण है कि सर्वज्ञरूप प्रसिद्ध उन केवली भगवान को बंध नहीं होता। इच्छा के अभाव में भी उनके द्वारा जो योग का प्रवर्तन होता है, उसके कारण होनेवाले आस्रव और एक समय का प्रदेश बंध होता है; मोह-राग-द्वेष के अभाव के कारण उस बंध में स्थिति और अनुभाग नहीं पड़ने से एक समय में ही उसकी निर्जरा हो जाती है; इसलिए वे अबंधक ही हैं ।। १७२ ।। इसके बाद टीकाकार मुनिराज 'तथा प्रवचनसार में भी कहा गया हैं' ह्र ऐसा लिखकर एक गाथा प्रस्तुत करते हैं, जो इसप्रकार है ह्र विपरिणमणि गेहदि उप्पज्जदि णेव तेसु अट्ठेसु । जाणण्णवि ते आदा अबंधगो तेण पण्णत्तो ।। ८४ ।। ( हरिगीत ) सर्वार्थाने जीव पर उनरूप न परिणमित हो । बस इसलिए है अबंधक ना ग्रहे ना उत्पन्न हो ॥ ८४ ॥ केवलज्ञानी आत्मा पदार्थों को जानता हुआ भी उनरूप परिणमित नहीं होता, उन्हें ग्रहण नहीं करता और उन पदार्थों के रूप में उत्पन्न भी नहीं होता; इसलिए उसे अबंधक कहा है। इस गाथा में यही बात कही गई है कि सर्वज्ञ भगवान सबको जानते हुए भी जानने में आते हुए पदार्थोंरूप परिणमित नहीं होते, उन्हें ग्रहण १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १४४० २. प्रवचनसार, गाथा ५२ 119 गाथा १७२ : शुद्धोपयोगाधिकार २३७ नहीं करते और उन पदार्थों के रूप में उत्पन्न नहीं होते; इसलिए उन्हें अनन्त संसार बढानेवाला बंध भी नहीं होता । ॥ ८४ ॥ इसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव ' तथाहि ' लिखकर एक छन्द स्वयं लिखते हैं; जो इसप्रकार है ह्र ( मंदाक्रांता ) जानन् सर्वं भुवनभवनाभ्यन्तरस्थं पदार्थं पश्यन् तद्वत् सहजमहिमा देवदेवो जिनेश: । मोहाभावादपरमखिलं नैव गृह्णाति नित्यं ज्ञानज्योतिर्हतमलकलिः सर्वलोकैकसाक्षी ।। २८८ ।। ( हरिगीत ) सहज महिमावंत जिनवर लोक रूपी भवन में। थित सर्व अर्थों को अरे रे देखते अर जानते ॥ निर्मोहता से सभी को नित ग्रहण करते हैं नहीं । कलिमल रहित सद्ज्ञान से वे लोक के साक्षी रहें ||२८८|| सहज महिमावंत देवाधिदेव जिनेन्द्रदेव लोकरूपी भवन में स्थित सभी पदार्थों को जानते-देखते हुए भी, मोह के अभाव के कारण किसी भी पदार्थ को कभी भी ग्रहण नहीं करते; परन्तु ज्ञानज्योति द्वारा मलरूप क्लेश के नाशक वे जिनेन्द्रदेव सम्पूर्ण लोक के एकमात्र साक्षी हैं, केवल ज्ञाता - दृष्टा हैं। इस कलश में यही कहा गया है कि सर्वज्ञ- वीतरागी जिनदेव जगत के सभी पदार्थों को देखते जानते हैं; फिर भी मोह के अभाव में किसी भी परपदार्थ को ग्रहण नहीं करते। वे तो जगत के एकमात्र साक्षी हैं, सहज ज्ञाता दृष्टा ही हैं । २८८ ॥ शुद्धय के विषयभूत अर्थ (निज भगवान आत्मा) का आश्रय करनेवाले ज्ञानीजनों को अनंत संसार के कारणभूत आस्रव-बंध नहीं होते । रागांश के शेष रहने से जो थोड़े-बहुत आस्रव-बंध होते हैं, उनकी उपेक्षा कर यहाँ ज्ञानी को निरास्रव और निर्बंध कहा गया है। ह्र सारसमयसार, पृष्ठ- १२

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