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नियमसार अनुशीलन उनकी मुख्यता नहीं होती। आत्मा की ही मुख्यता होती है। मुनिराज उपदेश देते हैं, शास्त्र लिखते हैं; परन्तु उनके कर्ता वे नहीं हैं; क्योंकि ये तो जड़ के कार्य हैं और जड़ के कारण से होते हैं। मुनिराज को बोलने का, शास्त्र लिखने का राग आता है; परन्तु उसकी भी उनके मुख्यता नहीं है। वे उस शुभराग को जानते तो हैं; पर निरंतर अन्तर स्वभाव की ही महिमा वर्तती है। इसी का नाम धर्म है। इसप्रकार साधकदशा में निश्चय-व्यवहार दोनों होते हैं। अकेला निश्चय हो तो केवलज्ञान हो जाये और अकेला व्यवहार हो तो मिथ्यादृष्टि होने का प्रसंग आता है। मुनिराज आत्मा को निश्चय से जानते हैं, तब व्यवहार के विकल्प भी होते हैं; परन्तु उनकी मुख्यता नहीं होती; क्योंकि वे राग और व्यवहार को तन्मय होकर नहीं जानते; पर आत्मा को तन्मय होकर जानते हैं।"
इसप्रकार हम देखते हैं कि इस छन्द में मात्र इतना ही कहा गया है कि ज्ञान शुद्ध जीव का स्वरूप है। अत: यह आत्मा साधकदशा में स्वयं को अवश्य जानता है। यदि यह ज्ञान आत्मा को न जाने तो वह आत्मा से भिन्न सिद्ध होगा ।।२८६।।
इसके बाद टीकाकार मुनिराज 'तथा कहा भी है' ह ऐसा लिखकर एक गाथा उद्धृत करते हैं; जो इसप्रकार है ह्न
णाणं अव्विदिरित्तं जीवादो तेण अप्पगं मुणइ। जदि अप्पगंण जाणइ भिण्णं तं होदि जीवादो।।८३ ।।
(दोहा) ज्ञान अभिन है आत्म से अत: जाने निज आत्म।
भिन्न सिद्ध हो वह यदि न जाने निज आत्म ||८३|| ज्ञान जीव से अभिन्न है; इसलिए आत्मा को जानता है। यदि ज्ञान आत्मा को न जाने तो वह आत्मा से भिन्न सिद्ध होगा।
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न
गाथा १७०: शुद्धोपयोगाधिकार
“यह आत्मा कर्म, शरीरादि से आज भी भिन्न है। आत्मा में पुण्य-पाप होते हैं; पर वे त्रिकालस्वभाव से भिन्न हैं; पर वह स्वभाव ज्ञान से भिन्न नहीं है। अतः ज्ञानी ज्ञान से आत्मा को जानता है। ज्ञान की पर्याय प्रतिक्षण उत्पन्न होती है। वह आत्मा को जानें तो उसे सम्यग्ज्ञान कहते हैं; परन्तु पर के ज्ञान को ज्ञान नहीं कहते । ज्ञानी को जब तक पूर्णदशा की प्राप्ति नहीं होती; तबतक वह राग को जानता तो है; पर उसकी उसे मुख्यता नहीं होती। ___ यह बात समझे बिना सच्ची सामायिक भी नहीं होती। सच्ची सामायिक तो मुक्ति प्रदान करती है। यह सामायिक कब होगी ?
आत्मा पर से भिन्न है, पुण्य-पाप विकार हैं, इनसे रहित ज्ञानस्वभावी आत्मा का भान करके अन्तर लीनता होने पर शान्ति और आनन्द की लहरें आना सामायिक है। आत्मा ज्ञान और अमृत का रसकन्द है। उनसे आत्मा भिन्न नहीं है; परन्तु पर से और राग से अत्यन्त भिन्न है। जब ऐसा भान होता है, तब सच्ची सामायिक होती है।
जब भरत चक्रवर्ती लड़ाई करने गये, तब भी उन्हें आत्मा का भान था। उनके ९६३ हजार रानियाँ थीं; फिर भी 'मैं ज्ञान हूँ' - ऐसा भान उन्हें निरंतर वर्तता था; अतएव उसी भव में मोक्ष गये और मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगी मुनि निरतिचार अट्ठाईस मूलगुण पालते हों, हजारों रानियों और राजपाट छोड़कर दीक्षा ली हो अथवा बालब्रह्मचारी हों; पर शुभराग से धर्म माने तो वे अज्ञानी ही हैं।
यहाँ तो कहते हैं कि अपने आत्मा में एकाग्रता न हो तो गुण-गुणी की एकता नहीं होती; अतः ज्ञानी जीव आत्मा को जानते हैं।"
इस गाथा में भी मात्र इतना ही कहा गया है कि ज्ञान जीव से अभिन्न है; इसलिए वह अपने को जानता है। यदि वह ज्ञान आत्मा को न जाने तो वह ज्ञान आत्मा से भिन्न सिद्ध होगा ||८३||
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१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १४२७-१४२८ २. गाथा कहाँ की है, इसका उल्लेख नहीं है।
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १४२९-१४३०