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नियमसार गाथा १५२ विगत गाथाओं में बहिरात्मा और अन्तरात्मा का स्वरूप स्पष्ट करने के उपरान्त अब इस गाथा में वीतराग चारित्र में आरूढ संत की बात करते हैं। गाथा मूलत: इसप्रकार है ह्र
पडिकमणपहुदिकिरियं कुव्वंतो णिच्छयस्स चारित्तं । तेण दु विरागचरिए समणो अब्भुट्ठिदो होदि ।।१५२ ।।
(हरिगीत) प्रतिक्रमण आदिक क्रिया निश्चयचरित धारक श्रमण ही।
हैं वीतरागी चरण में आरूढ़ केवलि जिन कहें।।१५२|| स्ववश सन्त प्रतिक्रमणादि क्रियारूप निश्चयचारित्र निरन्तर धारण करता है; इसलिए वह श्रमण वीतरागचारित्र में स्थित है।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
"यहाँ परम वीतराग चारित्र में स्थित परम तपोधन का स्वरूप कहा है।
ऐहिक व्यापार अर्थात् सांसारिक कार्य छोड़ दिये हैं जिसने ह्र ऐसा जो मोक्ष का अभिलाषी महामुमुक्षु, सभी इन्द्रियों के व्यापार को छोड़ देने से निश्चय प्रतिक्रमण आदि सत् क्रियाओं को निरन्तर करता है। इसकारण वह परम तपोधन निजस्वरूप विश्रान्त लक्षण परम वीतराग चारित्र में स्थित है।"
इस गाथा और उसकी टीका के भाव को आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र ___ "मोक्ष का निश्चय कारण तो त्रिकाली स्वभाव है और व्यवहार कारण वीतरागी निर्मलपर्याय है। मोक्षमार्गरूप आवश्यक क्रिया का कारण त्रिकाली स्वभाव है।'
जैसे पूर्णमासी के चन्द्रमा के निमित्त से समुद्र उछलता है, उसीप्रकार १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १०५
गाथा १५२: निश्चय परमावश्यक अधिकार
१३९ चैतन्यसुधा से भरे हुए आत्मा में वस्तुस्वभाव की यथार्थ प्रतीतिपूर्वक अवलम्बन लेने पर वीतरागी अमृत और शांति का समुद्र उछलता है। पुण्य-पाप रहित आत्मा का स्वभाव मध्य दरिया के समान है, उसमें एकाग्र होने पर पर्याय में शांति तथा अनाकुलता उत्पन्न होती है।
इच्छा के अभावरूप अकषायभाव ही तपश्चर्या है। राग की उत्पत्ति न होकर अनाकल शांति उत्पन्न होना ही तपश्चर्या है।'
चौथे-पाँचवें गुणस्थानवी जीव तो मुमुक्षु हैं और मुनिराज महामुमुक्षु हैं। वे संज्वलनकषायजन्य अस्थिरता का भी अभाव करके निरन्तर अपने स्वरूप में स्थिर रहने के लिए सदा तैयार रहते हैं।
जिसप्रकार कमल की एक-एक कली सूर्योदय का निमित्त पाकर खिल उठती है; उसीप्रकार जो आत्मा पुण्य-पाप में अटका होने से संकोच को प्राप्त था, वही निजस्वरूप की प्रतीति, ज्ञान और स्थिरता से पर्याय में कमल के फूल की भाँति खिल उठा है अर्थात् उसे परमचारित्रदशा प्रगट हो गई है। ऐसे चारित्रवंत मुनिराज को निजस्वरूप की ही मौज होती है।
परमात्मदशा चारित्र बिना नहीं होती। चारित्र सम्यग्दर्शन बिना नहीं होता, सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान बिना नहीं होता और सम्यग्दर्शन सच्चे देव-शास्त्र-गुरु की श्रद्धा बिना नहीं होता। इसलिए परमविश्रांतस्वरूप आत्मा की पहिचान सच्चे देव-शास्त्र-गुरु की श्रद्धापूर्वक होती है।
अतः सर्वप्रथम देव-शास्त्र-गुरु के सत्समागम द्वारा आत्मा के यथार्थ स्वरूप का निर्णय करना चाहिए और निर्णय के पश्चात् चारित्र अंगीकार कर सुखी होना चाहिए।" ___ इस गाथा और उसकी टीका में उत्कृष्ट अन्तरात्मा १२वें गुणस्थान वर्ती पूर्ण वीतरागी महामुमुक्षु मुनिराज का स्वरूप स्पष्ट किया गया है। कहा गया है कि उन्होंने समस्त सांसारिक कार्यों को तिलांजलि दे दी है, उनका इन्द्रियों का व्यापार पूर्णतः रुक गया है, निश्चय प्रतिक्रमणादि समस्त आवश्यक क्रियायें विद्यमान हैं। इसप्रकार वे परम तपोधन निज स्वरूप में विश्रांति लक्षणवाले वीतरागचारित्र में पूर्णतः स्थित हैं ।।१५२।। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १०६ २. वही, पृष्ठ १०७ ३. वही, पृष्ठ १०९-११०
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