Book Title: Niyamsara Anushilan
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 92
________________ १८२ नियमसार अनुशीलन के होने पर ताप और प्रकाश दोनों एक साथ नहीं दिखते; उसीप्रकार क्षायोपशमिक ज्ञान में दोनों उपयोग एक साथ नहीं होते । तथा जिसप्रकार बादल न रहने पर वे दोनों एक साथ होते हैं, उनके होने में अन्तर नहीं होता; उसीप्रकार जब आत्मा में क्षायिक ज्ञान-दर्शन होते हैं, तब ज्ञानदर्शन ह्न दोनों उपयोग एक साथ होते हैं।' जिसप्रकार सूर्य का प्रकाश और ताप एक समय में एक साथ होते हैं: उसीप्रकार भगवान के ज्ञान-दर्शन का उपयोग एक समय में एक साथ होता है। केवली के दर्शनोपयोग के समय ज्ञानोपयोग नहीं होता और ज्ञानोपयोग के समय दर्शनोपयोग नहीं होता - यदि ऐसा माना जाय तो केवली में ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म की सत्ता सिद्ध होती है; परन्तु केवली में वे कर्म नहीं हैं।" उक्त सम्पूर्ण कथन का सार मात्र इतना ही है कि क्षायिकज्ञानवालों के दर्शन और ज्ञान स्व-पर पदार्थों को एक साथ देखते-जानते हैं; पर क्षायोपशमिकज्ञानवाले जीव जब किसी पदार्थ को देखते-जानते हैं तो देखना (दर्शन) पहले होता है, उसके बाद जानना (ज्ञान) होता है। तात्पर्य यह है कि क्षायोपशमिकज्ञानवालों के देखना-जानना क्रमश: होता है और क्षायिकज्ञानवालों में देखना-जानना एक साथ होता है।।१६०|| इसके बाद 'तथा चोक्तं प्रवचनसारे ह्न तथा प्रवचनसार में भी कहा गया है' ह्न ऐसा लिखकर टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव एक गाथा प्रस्तुत करते हैं, जो इसप्रकार है ह्र णाणं अत्थंतगयं लोयालोएसु वित्थडा दिट्ठी। णट्ठमणिटुं सव्वं इ8 पुण जं तु तं लद्धं ।।७५।।' (हरिगीत ) अर्थान्तगत है ज्ञान लोकालोक विस्तृत दृष्टि है। हैं नष्ट सर्व अनिष्ट एवं इष्ट सब उपलब्ध हैं।।७५|| १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १३५६ २. वही, पृष्ठ १३५८ ३. प्रवचनसार, गाथा ६१ गाथा १६० : शुद्धोपयोगाधिकार १८३ केवलज्ञानी का ज्ञान पदार्थों के पार को प्राप्त है, दर्शन लोकालोक में विस्तृत है, सर्व अनिष्ट नष्ट हो चुके हैं और जो इष्ट हैं, वे सब प्राप्त हो गये हैं; इसकारण केवलज्ञान सुखस्वरूप ही है। इस गाथा में यह कहा गया है कि केवली भगवान के सर्व अनिष्ट नष्ट हो गये हैं और लोकालोक को एक साथ जानने-देखने की सामर्थ्य प्रगट हो गई है। इसकारण वे पूर्ण सुखी हैं, अनन्त सुरखी हैं ।।७५|| इसके बाद 'अन्यच्च ह अन्य भी देखिये ह ऐसा लिखकर एक गाथा प्रस्तुत करते हैं, जो इसप्रकार है ह्न दंसणपुव्वंणाणं छदमत्थाणंण दोण्णि उवओग्गा। जुगवं जह्या केवलिणाहे जुगवं तु ते दोवि ।।७६।।' (हरिगीत) जिनवर कहें छद्मस्थ के हो ज्ञान दर्शनपूर्वक। पर केवली के साथ हों दोनों सदा यह जानिये||७६|| छद्मस्थों (क्षायोपशमिकज्ञानवालों) के दर्शनपूर्वक ज्ञान होता है; क्योंकि उनके दोनों उपयोग एक साथ नहीं होते। केवली भगवान के ज्ञान और दर्शन ह्न दोनों उपयोग एक साथ होते हैं। - इस गाथा में भी मात्र इतना ही कहा गया है कि क्षायोपशमिकज्ञान वालों के ज्ञान दर्शनपूर्वक होता है और क्षायिकज्ञानवाले केवली भगवान को दर्शन और ज्ञान एक साथ होते हैं ।।७६।। इसके बाद टीकाकार मुनिराज 'तथाहिं' लिखकर चार छन्द स्वयं लिखते हैं; उनमें से प्रथम छन्द इसप्रकार है ह्र (स्रग्धरा) वर्तेते ज्ञानदृष्टी भगवति सततं धर्मतीर्थाधिनाथे सर्वज्ञेऽस्मिन् समंतात् युगपदसदृशे विश्वलोकैकनाथे। एतावुष्णप्रकाशौ पुनरपि जगतां लोचनं जायतेऽस्मिन् तेजोराशौ दिनेशे हतनिखिलतमस्तोमके ते तथैवम् ।।२७३।। 92 १. बृहद्रव्यसंग्रह, गाथा ४४

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