Book Title: Niyamsara Anushilan
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 95
________________ नियमसार गाथा १६१ विगत गाथा में यह कहा था कि केवली भगवान के ज्ञान और दर्शन एक साथ होते हैं और अब इस गाथा में यह बता रहे हैं कि यदि कोई ऐसा माने कि ज्ञान सर्वथा परप्रकाशक ही है और दर्शन स्वप्रकाशक तो उसका यह कथन सत्य नहीं है। गाथा मूलतः इसप्रकार है ह्र गाणं परप्पयासं दिट्ठी अप्पप्पयासया चेव । अप्पा सपरपयासो होदि त्ति हि मण्णसे जदि हि ।।१६१ ।। ( हरिगीत ) परप्रकाशक ज्ञान दर्शन स्वप्रकाशक इसतरह । स्वपरप्रकाशक आत्मा है मानते हो तुम यदि || १६१ || ज्ञान परप्रकाशक ही है और दर्शन स्वप्रकाशक ही है तथा आत्मा स्व-परप्रकाशक है ह्र ऐसा यदि तू वास्तव में मानता है तो उसमें विरोध आता है। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र "यह आत्मा के स्व-परप्रकाशन संबंधी विरोध का कथन है। प्रथम तो आत्मा का स्व-परप्रकाशनपना किसप्रकार है ? ह्न यदि कोई ऐसा कहे तो उस पर विचार किया जाता है। 'आत्मा ज्ञानदर्शनादि गुणों से समृद्ध है। उसका ज्ञानगुण शुद्ध आत्मा को प्रकाशित करने में असमर्थ होने से केवल परप्रकाशक ही है । इसीप्रकार निरंकुश दर्शन भी केवल अभ्यन्तर में आत्मा को करता है अर्थात् स्वप्रकाशक ही है। इस विधि से आत्मा स्वपरप्रकाशक है।' ह्न इसप्रकार हे जड़मति प्राथमिक शिष्य ! यदि तू दर्शनशुद्धि के अभाव से इसप्रकार मानता हो, तो वस्तुतः तुझ से अधिक जड़, मूर्ख अन्य कोई पुरुष नहीं है। 95 गाथा १६१ : शुद्धोपयोगाधिकार १८९ इसलिए अविरुद्ध स्याद्वादविद्यारूपी देवी की सत्पुरुषों द्वारा निरन्तर भली प्रकार आराधना करने योग्य है। स्याद्वाद मत में ज्ञान को एकान्त परप्रकाशकपना नहीं है। इसीप्रकार स्याद्वाद मत में दर्शन भी केवल शुद्धात्मा को ही नहीं देखता । आत्मा दर्शन, ज्ञान आदि अनेक गुणों का आधार है । व्यवहार पक्ष से भी ज्ञान केवल परप्रकाशक हो तो ; सदा बाह्य स्थितिपने के कारण ज्ञान का आत्मा के साथ संबंध ही नहीं रहेगा; इसलिए आत्मज्ञान के अभाव के कारण सर्वगतपना भी नहीं बनेगा । इसकारण ज्ञान का अस्तित्व ही नहीं रहेगा; मृगतृष्णा के जल की भाँति आभासमात्र ही होगा। इसीप्रकार दर्शनपक्ष से भी दर्शन केवल आभ्यन्तर प्रतिपत्ति का ही कारण नहीं है, वह मात्र स्व को ही नहीं देखता; अपितु सबको देखता है; क्योंकि चक्षु सदा सबको देखती है, अपने भीतर स्थित कनीनिका को नहीं देखती। इससे यह निश्चित होता है कि ज्ञान और दर्शन ह्न दोनों को ही स्वपरप्रकाशकपना अविरुद्ध ही है। इसप्रकार ज्ञानदर्शन लक्षणवाला आत्मा स्वपरप्रकाशक है।" इस गाथा के भाव को आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं "यह आत्मा के स्वपरप्रकाशकपने के विरोध का कथन है। यदि भगवान आत्मा स्वपरप्रकाशक है, तो उसका एक गुण स्व को प्रकाशे • और दूसरा गुण पर को प्रकाशे ऐसा मानने में विरोध आता है। गुणी से गुण भिन्न नहीं होते । आत्मा के गुण आत्मा की तरह स्वपरप्रकाशक हैं; अतः आत्मा को स्वपरप्रकाशक कहना और उसके गुणों में भेद करना तो विरोध है। आत्मा में पर्याय की पूर्ण अभेदता होकर उसकी एक पर्याय बाहर का काम करे और दूसरी पर्याय अन्तर का काम करे - ऐसा मानने पर १. आँख की पुतली २. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १३७३

Loading...

Page Navigation
1 ... 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165