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नियमसार अनुशीलन (हरिगीत) इन्द्रियविषयहिमरवि सम्यग्दृष्टि निर्मल आतमा। रे ज्ञान-दर्शन धर्म से संयुक्त धर्मी आतमा । में अचलता को प्राप्त कर जो मुक्तिरमणी को वरें।
चिरकालतक वे जीव सहजानन्द में स्थित रहें।।२७९|| ज्ञान-दर्शन धर्मों से युक्त होने से वस्तुतः आत्मा धर्मी है। सभी इन्द्रिय समूहरूपी हिम (बर्फ) को पिलघाने के लिए सूर्य समान सम्यग्दृष्टि जीव दर्शनज्ञानयुक्त आत्मा में सदा अविचल स्थिति को प्राप्त कर सहज दशारूप से सुस्थित मुक्ति को प्राप्त करते हैं।
इस छन्द के भाव को आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
"जिसप्रकार सूर्य विकसित होने पर बर्फ के टुकड़ों के समूह को नष्ट कर देता है, उसीप्रकार सम्यग्दृष्टि जीव अपने शुद्ध चैतन्य के अवलम्बन से खण्ड-खण्ड ज्ञान का नाश करने के लिये सर्य समान है।
'मैं तो एकरूप स्वपरप्रकाशक आत्मा हूँ' - ऐसी दृष्टि तो उसे है ही; परन्तु वह उस आत्मा में पुरुषार्थ करके सदा अविचल रहने वाली स्थिति प्राप्त करता है। साधकदशा में शुभाशुभभाव आते हैं; परन्तु उनसे केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं होती; बल्कि स्वभाव में अविचलरूप से लीनता करने से वह सम्यग्दृष्टि जीव मुक्ति पाता है, जो मुक्ति प्रगट हुई वह सहज अवस्थारूप से सुरक्षित रहती है। ज्ञानदर्शनमय आत्मा अनादि से था; परन्तु उसके आश्रय से प्रगट होनेवाली मुक्ति की पर्याय अनादि की नहीं थी, वह तो नवीन प्रगट होती है। अभेद सामान्य स्वभाव के आश्रय से सम्यग्दृष्टि जीव मुक्ति की प्राप्ति करता है।"
इस छन्द में यही कहा गया है कि ज्ञानदर्शनस्वभावी स्वपरप्रकाशक आत्मा में अविचल स्थिति धारण करनेवाले एवं पंचेन्द्रिय विषयोंरूपी बर्फ को पिलघाने में सूर्य के समान समर्थ सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा सहज दशारूप मुक्ति को प्राप्त करते हैं। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १३८९
२. वही, पृष्ठ १३८९
नियमसार गाथा १६४ अब इस गाथा में यह स्पष्ट करते हैं कि व्यवहारनय से ज्ञान और आत्मा के समान दर्शन भी परप्रकाशक है । गाथा मूलत: इसप्रकार है ह्र
णाणं परप्पयासं ववहारणयेण दंसणं तम्हा । अप्पा परप्पयासो ववहारणयेण दंसणं तम्हा ।।१६४।।
(हरिगीत) परप्रकाशक ज्ञान सम दर्शन कहा व्यवहार से।
अरपरप्रकाशक आत्म सम दर्शन कहा व्यवहारसे ||१६४|| व्यवहारनय से ज्ञान परप्रकाशक (पर को जाननेवाला) है: इसलिए व्यवहारनय से दर्शन भी परप्रकाशक (पर को देखनेवाला) है। व्यवहारनय से आत्मा परप्रकाशक (पर को देखने-जाननेवाला) है; इसलिए व्यवहारनय से दर्शन भी परप्रकाशक (पर को देखनेवाला) है।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
"यह व्यवहारनय की सफलता को प्रदर्शित करनेवाला कथन है। समस्त घातिकर्मों के क्षय से प्राप्त होनेवाला पूर्णत: निर्मल केवलज्ञान; पुद्गलादि मूर्त-अमूर्त, चेतन-अचेतन परद्रव्य और उनके गुण व उनकी पर्यायों के समूह का प्रकाशक (जाननेवाला) किसप्रकार है ?
ऐसा प्रश्न होने पर उसके उत्तर में कहते हैं कि 'पराश्रितो व्यवहारः ह्र व्यवहार पराश्रित होता है' ह्र आगम के उक्त कथन के आधार पर व्यवहारनय के बल से ऐसा है । तात्पर्य यह है कि आगम में व्यवहारनय से केवलज्ञान को परप्रकाशक (पर को जाननेवाला) कहा गया है। इसीप्रकार केवलदर्शन भी व्यवहारनय से परप्रकाशक (पर को देखने वाला) है।
तीन लोक में प्रक्षोभ के हेतुभूत एवं सौ इन्द्रों से वंदनीय कार्यपरमात्मा तीर्थंकर परमदेव अरहंत भगवान भी केवलज्ञान के समान ही व्यवहारनय
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