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नियमसार गाथा १६६
विगत गाथा में निश्चयनय से ज्ञान, दर्शन और आत्मा का स्वरूप स्पष्ट करने के उपरान्त अब बहुचर्चित आगामी गाथा में यह बताते हैं। कि केवली भगवान आत्मा को ही देखते हैं, लोकालोक को नहीं; ह्र यदि कोई ( निश्चयनय से) ऐसा कहता है तो इसमें क्या दोष है। तात्पर्य यह है कि उसमें कोई दोष नहीं है।
गाथा मूलतः इसप्रकार है ह्र
अप्पसरूवं पेच्छदि लोयालोयं ण केवली भगवं । जइ कोइ भइ एवं तस्स य किं दूसणं होई ।। १६६ ।। ( हरिगीत )
देखे जाने स्वयं को पर को नहीं जिनकेवली ।
यदि कहे कोई इसतरह उसमें कहो है दोष क्या ? || १६६ || केवली भगवान आत्मस्वरूप को देखते हैं, लोकालोक को नहीं; ह्न यदि कोई (निश्चयनय) ऐसा कहता है तो उसमें क्या दोष है ?
इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज इसप्रकार स्पष्ट करते हैं "यह शुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा से पर को देखने का खण्डन है। यद्यपि यह आत्मा व्यवहारनय से एक समय में तीन काल संबंधी पुद्गलादि द्रव्यों के गुण, पर्यायों को जानने में समर्थ केवलज्ञानमात्र स्वरूप महिमा का धारक है; तथापि केवलदर्शनरूप तीसरी आँखवाला होने पर भी, परमनिरपेक्षपने के कारण पूर्णतः अन्तर्मुख होने से केवल स्वरूप प्रत्यक्षमात्र व्यापार में लीन निरंजन निज सहजदर्शन द्वारा सच्चिदानन्दमय आत्मा को वेदन करनेवाले परमजिनयोगीश्वर शुद्धनिश्चयनय से कहते हैं तो उसमें कोई दोष नहीं है। "
उक्त गाथा का भाव स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न 'निश्चयनय से केवली भगवान स्व को जानते हैं, पर को नहीं' - इससे कोई ऐसा अर्थ करे कि वे लोकालोक को जानते ही नहीं तो यह बात गलत है।
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गाथा १६६ : शुद्धोपयोगाधिकार
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इस गाथा में ‘शुद्धनिश्चयनय से केवली भगवान स्व को देखते हैं' - ऐसा कहकर व्यवहार का खण्डन किया है ।
केवली भगवान त्रिकालसंबंधी अनन्त पद्गल, दूसरे जीव तथा धर्मादि द्रव्यों के द्रव्य-गुण-पर्याय को जानने में समर्थ हैं । तथा अनन्तसिद्ध और केवलियों को भी जानते हैं। ऐसे समर्थ सकल विमल केवलज्ञान आदि विविध महिमा के धारक भगवान हैं। भगवान का आत्मा और केवलज्ञान भिन्न नहीं है। वह आत्मा से अभेद है। - इसप्रकार भगवान व्यवहार से लोकालोक को जानने पर भी निश्चय से अपनी आत्मा को जानते हैं।
कोई शुद्ध अंतः तत्त्व के ज्ञाता परमवीतरागी मुनि निश्चयनय की विवक्षा से ऐसा कहें तो उसमें दोष नहीं है; क्योंकि वे व्यवहार की अपेक्षा समझकर, उसे गौण कर ऐसा कहते हैं। इससे भगवान लोकालोक को जानते ही नहीं ऐसा कोई अर्थ करे तो वह गलत है; परन्तु व्यवहार को गौण करके निश्चयनय की विवक्षा से कहें तो दोष नहीं है। "
इसप्रकार इस गाथा और उसकी टीका में मात्र यही कहा गया है कि यद्यपि शुद्धनिश्चयनय का उक्त कथन पूर्णतः सत्य है; तथापि केवली भगवान पर को जानते ही नहीं हैं ह्न यह बात नहीं है। वे उन पदार्थों में तन्मय नहीं होते, उनमें अपनापन नहीं करते; इसकारण उनके पर संबंधी परम सत्य ज्ञान को भी व्यवहार कहा गया है । । १६६ ॥ इसके बाद टीकाकार मुनिराज एक छंद लिखते हैं, जो इसप्रकार हैह्र ( मंदाक्रांता )
पश्यत्यात्मा सहजपरमात्मानमेकं विशुद्धं स्वान्तःशुद्ध्यावसथमहिमाधारमत्यन्तधीरम् ।
स्वात्मन्युच्चैरविचलतया सर्वदान्तर्निमग्नं तस्मिन्नैव प्रकृतिमहति व्यावहारप्रपंच: ।। २८२ ।।
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १४०१
२. वही, पृष्ठ १४०२