________________
२१८
नियमसार अनुशीलन आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा और उसकी टीका का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
“इस गाथा में यह बताते हैं कि केवलदर्शन के अभाव में केवलज्ञान भी सिद्ध नहीं होता।
इस गाथा में केवलज्ञान सहित केवलदर्शन को प्रत्यक्ष कहा है और द्रव्यों को सम्यक् प्रकार से नहीं देखने को परोक्ष दर्शन कहा है। इसप्रकार नास्ति से कथन किया है। इससे पहले की गाथा में अस्ति से बात की थी। जड़ के जड़, चेतन के चेतन, मूर्त के मूर्त और अमूर्त के अमूर्त - इसप्रकार विभिन्न प्रकार के गुण होते हैं और उनकी पर्यायें भी अनेक प्रकार की होती हैं। ये सभी जिसरूप में हैं, उस रूप में जो इन्हें नहीं देखता है, उसके प्रत्यक्ष दर्शन नहीं है; परन्तु परोक्ष दर्शन है - ऐसा यहाँ बताया है।
यहाँ बताया जा रहा है कि केवलदर्शन के अभाव में अर्थात् प्रत्यक्ष दर्शन के अभाव में सर्वज्ञपना सिद्ध नहीं होता है।"
इस गाथा और उसकी टीका में यही कहा गया है कि केवलदर्शन के बिना केवलज्ञान नहीं होता। केवलदर्शन और केवलज्ञान ही क्रमश: प्रत्यक्षदर्शन और प्रत्यक्षज्ञान हैं। चक्षुदर्शन आदिअन्यदर्शन और मतिज्ञान आदि अन्य ज्ञान परोक्ष दर्शन-ज्ञान हैं।
इसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव एक छन्द लिखते हैं; जो इसप्रकार है ह्र
(वसंततिलका ) यो नैव पश्यति जगत्त्रयमेकदैव
कालत्रयं च तरसा सकलज्ञमानी। प्रत्यक्षदृष्टिरतुला न हि तस्य नित्यं
सर्वज्ञता कथमिहास्य जडात्मन: स्यात् ।।२८४।।
गाथा १६८: शुद्धोपयोगाधिकार
(हरिगीत) 'मैं स्वयं सर्वज्ञ हूँ ह इस मान्यता से ग्रस्त जो। पर नहीं देखे जगतत्रय त्रिकाल को इक समय में || प्रत्यक्षदर्शन है नहीं ज्ञानाभिमानी जीव को।
उस जड़ात्मन को जगत में सर्वज्ञता हो किसतरह? ||२८४|| सर्वज्ञता के अभिमानवाला जो जीव एक ही समय तीन लोक और तीन काल को नहीं देखता; उसे कभी भी अतुल प्रत्यक्ष दर्शन नहीं होता; उस जड़ आत्मा को सर्वज्ञता किसप्रकार होगी? तात्पर्य यह है कि वह सर्वज्ञ नहीं हो सकता।
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न
"कुछ लोग गृहस्थ अवस्था में भी सर्वज्ञता मानते हैं; परन्तु कपड़ा आदि रहते जब मुनिपना ही नहीं होता, तब सर्वज्ञपना तो हो ही नहीं सकता। यहाँ तो सर्वज्ञपने की व्याख्या करते हुए टीकाकार मुनिराज कहते हैं कि जिसे तीन काल और तीन लोक का ज्ञान नहीं है, ऐसे पुरुष को सर्वज्ञ मानना तो मूर्खता है, ऐसी मान्यतावाले जीव जड़ हैं; क्योंकि अल्पज्ञता में सर्वज्ञता माननेवाला परम्परा से निगोद जाता है और वहाँ जड़ जैसा ही हो जाता है; अतः उसे यहाँ जड़ कहा है।
आत्मा स्व-परप्रकाशक है - उसका स्वभाव सभी को जानने की सामर्थ्यवाला है। जो ऐसा नहीं मानकर अल्पज्ञ को सर्वज्ञ मानता है; वह मिथ्यादृष्टि है, जड़ है।"
इस छन्द में यही कहा गया है कि जो व्यक्ति स्वयं को सर्वज मानता है ह ऐसा सर्वज्ञाभिमानी जीव जब एक ही समय तीन लोक और तीन काल को नहीं देखता, नहीं जानता; तो वह सर्वज्ञ कैसे हो सकता है?
तात्पर्य यह है कि वह सर्वज्ञ नहीं हो सकता; क्योंकि सर्वज्ञ कहते ही उसे हैं; जो लोक के सभी द्रव्यों, उनके सभी गुणों और उनकी सभी पर्यायों को बिना किसी के सहयोग देखे-जाने।
110
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १४११
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १४१३-१४१४
२
. वही, पृष्ठ १४१४