Book Title: Niyamsara Anushilan
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 108
________________ २१५ २१४ नियमसार अनुशीलन सभी पदार्थों को प्रत्यक्ष जानता है; क्योंकि वह ज्ञान पूर्णतः निर्मल और अतीन्द्रिय है। __इसके बाद टीकाकार मुनिराज तथा प्रवचनसार में भी कहा गया हैं' ह्र ऐसा लिखकर एक गाथा प्रस्तुत करते हैं; जो इसप्रकार है ह्र जं पेच्छदो अमुत्तं मुत्तेसु अदिदियं च पच्छण्णं । सयलं सगं च इदरं तं णाणं हवदि पच्चक्खं ।।८।। (हरिगीत) अमूर्त को अर मूर्त में भी अतीन्द्रिय प्रच्छन्न को। स्व-पर को सर्वार्थ को जाने वही प्रत्यक्ष है||८०|| देखनेवाले आत्मा का जो ज्ञान अमूर्त को, मूर्त पदार्थों में भी अतीन्द्रिय पदार्थों को और प्रच्छन्न पदार्थों को तथा स्व और पर ह्न सभी को देखता है, जानता है; वह ज्ञान प्रत्यक्ष है। इस गाथा का भाव आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “यहाँ यह कहा जा रहा है कि भगवान का ज्ञान इन्द्रियमूर्त और अतीन्द्रियमूर्त तथा अमूर्त पदार्थों को एक साथ प्रत्यक्ष जानता है। शरीरादि इन्द्रियगम्य हैं; अत: वे इन्द्रियमूर्त पदार्थ कहलाते हैं एवं परमाणु व सूक्ष्म स्कन्ध इन्द्रियगोचर न होने से अतीन्द्रियमूर्त कहलाते हैं। भूत और भविष्य की पर्यायें विनष्ट और अनुत्पन्न होने से प्रच्छन्न पदार्थों की श्रेणी में आती हैं। उन सभी पर्यायों को केवलज्ञानी युगपत् प्रत्यक्ष जानते हैं। कौन जीव कब मोक्ष जाएगा, कौन जीव मोक्ष नहीं जाएगा, तत्त्व के आराधक और विराधक कहाँ जायेंगे - ये सभी बातें साधारण जीवों के लिए अगम्य होने पर भी केवली के लिए पूर्णतया गम्य हैं।” उक्त गाथा और उसकी टीका का सार यह है कि अतीन्द्रिय क्षायिक गाथा १६७ : शुद्धोपयोगाधिकार केवलज्ञान में स्व-पर और मूर्त-अमूर्त सभी पदार्थ अपनी सभी स्थूलसूक्ष्म पर्यायों के साथ एक समय में जानने में आते हैं। इसके बाद टीकाकार एक छन्दस्वयं प्रस्तुत करते हैं; जो इसप्रकार हैह्र (मंदाक्रांता) सम्यग्वर्ती त्रिभुवनगुरुः शाश्वतानन्तधामा लोकालोकौ स्वपरमखिलं चेतनाचेतनं च । तार्तीयं यन्नयनमपरं केवलज्ञानसंज्ञं तेनैवायं विदितमहिमा तीर्थनाथो जिनेन्द्रः ।।२८३।। (हरिगीत ) अनन्त शाश्वतधाम त्रिभुवनगुरु लोकालोक के। रे स्व-पर चेतन-अचेतन सर्वार्थ जाने पूर्णतः ।। अरे केवलज्ञान जिनका तीसरा जो नेत्र है। विदित महिमा उसी से वे तीर्थनाथ जिनेन्द्र हैं।।२८३|| केवलज्ञानरूप तीसरे नेत्र से प्रसिद्ध महिमा धारक त्रैलोक्यगुरु हे तीर्थनाथ जिनेन्द्र ! आप अनन्त शाश्वतधाम हो और लोकालोक अर्थात् स्व-पर समस्त चेतन-अचेतन पदार्थों को भलीभाँति जानते हो। स्वामीजी इस छन्द का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न __ "केवली भगवान की महिमा उनके केवलज्ञानरूपी उत्कृष्ट नयन से है; परमौदारिक शरीर, दिव्यध्वनि, समवशरण आदि से नहीं; क्योंकि ये सभी पुण्य के परिणाम हैं। समवशरण में होने वाले अतिशयों के द्वारा भी भगवान की महिमा नहीं है। जैसे कि समवशरण में सिंह और बकरी एक साथ बैठते हैं: इत्यादि नानाप्रकार के अतिशयों से उनकी महिमा नहीं है। इससे सिद्ध होता है कि भगवान ने भी पुण्य का निषेध करके, अन्तर में स्थिर होकर केवलज्ञान प्रकट किया है। समवशरण में गणधरादि मुनिराज आते हैं, इन्द्र आते हैं - यह सब पुण्य का प्रताप है, जड़ की क्रीड़ा है। इसमें चेतन की जरा भी महिमा नहीं है। यदि भगवान की महिमा बाहा ऋद्धि के कारण होती तो बाहा ऋद्धि होने के कारण देवतागण भी भगवान कहलाते। 108 १. प्रवचनसार, गाथा ५४ २. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १४०८

Loading...

Page Navigation
1 ... 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165