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नियमसार गाथा १६९ विगत गाथा में यह कहा गया था कि केवलदर्शन के बिना केवलज्ञान संभव नहीं है और अब इस गाथा में व्यवहारनय संबंधी कथन को निर्दोष बता रहे हैं। गाथा मूलत: इसप्रकार है ह्र
लोयालोयं जाणइ अप्पाणं णेव केवली भगवं । जड़ कोइ भणइ एवं तस्स य किं दूसणं होई ।।१६९ ।।
(हरिगीत) सब विश्व देखें केवली निज आत्मा देखें नहीं।
यदि कहे कोई इसतरह उसमें कहो है दोष क्या ?||१६९|| व्यवहारनय से केवली भगवान लोकालोक को जानते हैं, आत्मा को नहीं ह्न यदि कोई ऐसा कहे तो उसे क्या दोष है ? तात्पर्य यह है कि उसके उक्त कथन में कोई दोष नहीं है।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
"यह व्यवहारनय के प्रादुर्भाव का कथन है।
'व्यवहारनय पराश्रित हैं' ह्न ऐसे शास्त्र के अभिप्राय के कारण व्यवहारनय से, व्यवहारनय की प्रधानता से; सकलविमल केवलज्ञान है तीसरा नेत्र जिनका और अपुनर्भवरूपी कमनीय मुक्ति कामिनी के जीवितेश (प्राणनाथ) सर्वज्ञ भगवान, छह द्रव्यों से व्याप्त तीन लोक को और शुद्ध आकाशमात्र आलोक को जानते हैं और निर्विकार शुद्ध आत्मस्वरूप को नहीं जानते ह ऐसा यदि व्यवहारनय की विवक्षा से कोई जिनेन्द्र भगवान कथित तत्त्व में दक्ष जीव कदाचित् कहे तो उसे वस्तुतः उसे कोई दोष नहीं है।'
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा और उसकी टीका का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
"स्व को जानने से पर ज्ञात हो जाता है - यह निश्चय कथन है
गाथा १६९: शुद्धोपयोगाधिकार
और भगवान पर को जानते हैं - ऐसा कहना व्यवहार है। पर का ज्ञान परोक्ष नहीं है; पर प्रत्यक्ष है। ऐसा चैतन्य का सामर्थ्य है। भगवान को लोकालोक के ज्ञान का वेदन है, पर लोकालोक का वेदन नहीं है। यह भेदज्ञान कराने के लिए भगवान व्यवहार से लोकालोक को जानते हैं - ऐसा कहा है।
श्रुतज्ञान का अंश नय है। केवली को नय नहीं है; परन्तु कोई ज्ञानी ऐसा कहे कि केवली भगवान पर को व्यवहार से जानते हैं तो उसमें दोष नहीं है। उसे आत्मा का ज्ञान हुआ है; अतः वह ऐसा कहता है कि केवली निश्चय से स्व को ही देखते हैं, पर को नहीं। और व्यवहार से वे पर को ही देखते हैं, स्वयं को नहीं। - यह कथन ठीक है। केवली का आत्मा लोकालोक को छूता नहीं है अर्थात् उसमें एकमेक होकर नहीं जानता है - 'इस बात में कोई दोष नहीं हैं' - ऐसा कहकर आचार्यदेव आत्मा के अलावा लोकालोक की सत्ता भी सिद्ध करते हैं।
जो ज्ञान है, वही आत्मा है। इसप्रकार स्वसन्मुख होकर ज्ञानी जिस समय स्व को जानता है, उस समय साधकदशा में जो राग है, उस राग के वेदन बिना (अपनेपन बिना) राग का जो ज्ञान है, वह निश्चय है और ज्ञानी आत्मा राग को जानता है - ऐसा कहना असद्भूत व्यवहार है। जो ज्ञान है, वही आत्मा है - इसप्रकार स्वसन्मुख होकर ज्ञानी जिस समय स्व को जानता है, उस समय साधकदशा में जो राग है, उस राग के वेदन बिना राग का जो ज्ञान है, वह निश्चय है और ज्ञानी आत्मा राग को जानता है, ऐसा कहना असद्भूत व्यवहार है।
ज्ञानी के चारित्रगुण की पर्याय में पूर्णता नहीं है; अतः उसे राग के दुःख का वेदन है। - इसप्रकार शास्त्र में कहा जाता है; परन्तु ज्ञान की अपेक्षा से ज्ञान में विकास हुआ है। ज्ञानी उस ज्ञान का वेदन करता हुआ तथा राग का वेदन न करता हुआ उसकी पर्याय में राग का ज्ञान होना निश्चय है और राग, पुण्य और अधर्म है; उसका वेदन (अपनापन)
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१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १४१७
२. वही, पृष्ठ १४१७