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नियमसार अनुशीलन से परप्रकाशक (पर को देखने-जाननेवाले) हैं। उसी के अनुसार व्यवहार नय के बल से उनके केवलदर्शन को परप्रकाशकपना (पर को देखनेरूप प्रकाशनपना) है।"
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न
"तीर्थंकर के जन्मकल्याणक आदि प्रसंग में तीनों लोक में आनन्द मय हलचल हो जाती है। नरक के जीवों को भी उस समय शांति उत्पन्न होती है। तीर्थंकर की पुण्य प्रकृति का और जीवों की योग्यता का ऐसा ही निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है तथा तीर्थंकर सौ इन्द्रों से साक्षात् वन्दनीय हैं। वे तीर्थंकर कार्य परमात्मा हैं। त्रिकाली शक्ति को कारण परमात्मा कहते हैं, उसके अवलम्बन से जो केवलज्ञानादि चतुष्टय प्रगट हुआ, उसे कार्यपरमात्मा कहते हैं; उन तीर्थंकरों की आत्मा के, ज्ञान की तरह व्यवहारनय के बल से परप्रकाशकपना है अर्थात् पर में प्रवेश किये बिना ही वे लोकालोक को देखते-जानते हैं; जिससे व्यवहारनय के बल से भगवान का केवलदर्शन भी पर में प्रविष्ट हुए बिना लोकालोक को देखता है।” ____ गाथा और उसकी टीका में यह बात स्पष्ट की गई है कि जिसप्रकार व्यवहारनय से केवलज्ञान परप्रकाशक (पर को जाननेवाला) है; उसीप्रकार केवलदर्शन भी परप्रकाशक (पर को देखनेवाला) है।
इसीप्रकार जैसे व्यवहारनय से आत्मा परप्रकाशक (पर को देखनेजाननेवाला) है; तैसे केवलदर्शन भी व्यवहार से परप्रकाशक (पर को देखने वाला) है।
इसके बाद 'तथा चोक्तं श्रुतबिन्दौ ह्न तथा श्रुतबिन्दु में भी कहा है' ह्र ऐसा लिखकर एक छन्द प्रस्तुत करते हैं; जो इसप्रकार है ह्र
गाथा १६४ : शुद्धोपयोगाधिकार
(मालिनी) जयति विजितदोषोऽमर्त्यमान्द्रमौलि
प्रविलसदुरुमालाभ्यार्चितांघ्रिर्जिनेन्द्रः । त्रिजगदजगती यस्येदृशौ व्यश्नुवाते सममिव विषयेष्वन्योन्यवृत्तिं निषेधुम् ।।७९।।'
(हरिगीत) अरे जिनके ज्ञान में सब द्रव्य लोकालोक के। इसतरह प्रतिबिंबित हुए जैसे गुंथे हों परस्पर। सुरपती नरपति मुकुटमणि की माल से अर्चित चरण।
जयवंत हैं इस जगत में निर्दोष जिनवर के वचन ||७९|| जिन्होंने १८ दोषों को जीता है, जिनके चरणों में इन्द्र तथा चक्रवर्तियों के मणिमाला युक्त मुकुटवाले मस्तक झुकते हैं और जिनके ज्ञान में लोकालोक के सभी पदार्थ इसप्रकार ज्ञात होते हैं, प्रवेश पाते हैं; कि जैसे वे एक-दूसरे से गुंथ गये हैं; ऐसे जिनेन्द्र भगवान जयवन्त वर्तते हैं।
इसप्रकार इस छन्द में जिनेन्द्र भगवान की स्तुति करते हुए यह कहा गया है कि वे १८ दोषों से रहित हैं, लोकालोक के सभी पदार्थों को जानते हैं और इन्द्र व चक्रवर्ती उनके चरणों में नतमस्तक रहते हैं; वे जिनेन्द्र भगवान जयवंत वर्तते हैं। - इसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव एक छन्द स्वयं लिखते हैं; जो इसप्रकार है ह्र
(मालिनी) व्यवहरणनयेन ज्ञानपुंजोऽयमात्मा
प्रकटतरसुदृष्टिः सर्वलोकप्रदर्शी । विदितसकलमूर्तामूर्ततत्त्वार्थसार्थ:
स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः ।।२८०।।
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१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १३९१-१३९२
१.श्रुतबिन्दु, श्लोक संख्या अनुपलब्ध है।