Book Title: Niyamsara Anushilan
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 91
________________ १८० नियमसार अनुशीलन से मल और क्लेश से रहित वे देवाधिदेव जिनेश निजस्वरूप अपने भगवान आत्मा को अत्यन्त स्पष्टरूप से जानते हैं। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस छन्द के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “आत्मा में जो शक्तिरूप से ज्ञान था, वही पूर्णतः व्यक्त हुआ है। ह्र ऐसा कहकर आचार्यदेव भगवान की पहचान कराते हैं, वस्तु के वास्तविक स्वरूप को बताते हैं। ऐसा जानने पर भी आत्मा की मुक्ति न हो - ऐसा नहीं बनता है। एक केवली से दूसरे केवली भिन्न हैं, एक सिद्ध से दूसरे सिद्ध भिन्न हैं, उन सबको केवलज्ञान जानता है; परन्तु ज्ञान उनरूप नहीं होता; अतः व्यवहार कहा है। व्यवहारनय से कहा है। अतः पर को नहीं जानता - ऐसा नहीं है; परन्तु वास्तव में पर को जानता है। ___ मन, वाणी से पार आत्मा में लीन होने से प्रगट होने वाला पूर्णज्ञान निरन्तर लोकालोक को जानता है। केवली भगवान मुक्तिलक्ष्मीरूपी कामिनी से सुशोभित हो रहे हैं। वे पूर्णज्ञान में आनन्द और शान्ति का अनुभव करते हैं। वह परिणतिरूपी स्त्री भगवान से कभी भिन्न नहीं होती है। जिसप्रकार संसार में जो स्त्री विधवा नहीं है, वह सौभाग्यवती कहलाती है; उसीप्रकार आत्मा की जो परिणति पूर्णदशारूप हुई, वह सौभाग्यवती है; क्योंकि उसका विरह नहीं होता है अर्थात् प्रगट होने पर ऐसी की ऐसी ही रहती है। निचली दशा में तो उसका छूटना संभव है अर्थात् परिणति में विरह हो सकता है; परन्तु केवलज्ञान और केवलदर्शन अनन्त काल रहता है। यह सौभाग्य कभी समाप्त नहीं होता है । यह केवलज्ञान का स्वरूप है।" उक्त छन्द में भी यही कहा गया है कि केवली भगवान निश्चय से निज भगवान आत्मा को और व्यवहार से लोकालोक को जानते हैं। . नियमसार गाथा १६० विगत गाथा में यह बताया गया था कि केवली भगवान निश्चयनय से स्वयं के आत्मा को देखते-जानते हैं और व्यवहारनय से लोकालोक को देखते-जानते हैं और अब इस गाथा में सोदाहरण यह बताते हैं कि केवली भगवान के दर्शन और ज्ञान एक साथ होते हैं। गाथा मूलतः इसप्रकार है ह्र । जुगवं वट्टइणाणं केवलणाणिस्स दंसणंच तहा। दिणयरपयासतावं जह वट्टइ तह मुणेयव्वं ।।१६०।। (हरिगीत ) ज्यों ताप और प्रकाश रवि में एकसाथ रहें सदा। त्यों केवली के ज्ञान-दर्शन एकसाथ रहें सदा ।।१६०|| जिसप्रकार सूर्य के प्रकाश और ताप एक साथ वर्तते हैं; उसीप्रकार केवलज्ञानी के ज्ञान और दर्शन एक साथ वर्तते हैं ह्र ऐसा जानना चाहिए। उक्त गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “यहाँ वस्तुतः केवलज्ञान और केवलदर्शन के एक साथ होने को दृष्टान्त के द्वारा समझाया गया है। दृष्टान्त पक्ष में जब बादलों की बाधा न हो, तब आकाश में स्थित सूर्य में जिसप्रकार प्रकाश और ताप एक साथ रहते हैं; उसीप्रकार तीर्थाधिनाथ परमेश्वर भगवान को तीन लोकवर्ती और तीन कालवर्ती स्थावर-जंगम द्रव्य-गुण-पर्यायात्मक ज्ञेयों में पूर्णतः निर्मल केवलज्ञान व केवलदर्शन एक साथ वर्तते हैं। दूसरी बात यह है कि संसारी जीवों के ज्ञान, दर्शन पूर्वक ही होता है। पहले दर्शन होता है, उसके बाद ज्ञान होता है।" इस गाथा और उसकी टीका के भाव को आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र " 'किसी समय' कहने का आशय यह है कि जिसप्रकार बादलों १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १३५२-१३५३ २. वही, पृष्ठ १३५३-१३५४

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