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नियमसार अनुशीलन गुण या उसकीसम्यग्ज्ञानरूपपर्याय को निश्चयनय से स्व-पर प्रकाशक सिद्ध कर रहे हैं। वे कहते हैं कि ज्ञान स्वयं को जानता है यह उसका स्वप्रकाशकपना हआ और ज्ञान से भिन्न सख, श्रद्धा, चारित्रादि अपने गुणों और उनकी पर्यायों को जानता है ह यह उसका परप्रकाशकपना हुआ। इसप्रकार वह अपने द्रव्य-गुण-पर्याय को जानकर निश्चय से भी स्व-पर प्रकाशक सिद्ध होता है।
इस गाथा और इसकी टीका के भाव को आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं त
"भगवान लोकालोक को जानते हैं अर्थात् वे लोकालोक के प्रदेशों में तन्मय हुए बिना ही सम्पूर्ण पदार्थों को जानते हैं; इसलिये व्यवहार कहा है, परन्तु इससे भगवान का ज्ञान अभूतार्थ है अथवा संदेहात्मक है - ऐसा अर्थ नहीं निकलता तथा कोई कहे कि भगवान की महिमा बताने के लिये लोकालोक जानते हैं - ऐसा कहा है तो यह बात भी गलत है। केवलज्ञान की एक समय की पर्याय का स्वरूप बताता है कि केवली पर में तन्मय हुए बिना समस्त पदार्थों को यथार्थतया जानते हैं तथा वह केवलज्ञान और प्रमिति कथंचित् भिन्न है।' ___केवलज्ञान पर को व्यवहार से जानता है, इसका अर्थ यह नहीं है कि उसे पर का निर्णयात्मकज्ञान नहीं है, बल्कि वह पर को तन्मय होकर नहीं जानता है; अतः व्यवहार से जानता है - ऐसा कहा जाता है।
वस्तुतः परमात्मा स्व में लीन हैं; पर को जानने पर भी पर में लीन नहीं होते हैं। स्व की लीनता में ही अन्यगुणों का भी ज्ञान हो जाता है; अतः उनके निश्चय से भी स्व-परप्रकाशकपना है। वे व्यवहार से अपनी आत्मा तथा लोकालोक को जानने से स्व-परप्रकाशी हैं तथा निश्चय से ज्ञान एवं उससे भिन्न अन्य अनन्त गुणों को जानने से स्वपरप्रकाशी हैं।
सहज जानना आत्मा का स्वभाव है। कोई कहता है कि जानना तो उपाधि है, तो यह बात गलत है; क्योंकि उपाधि परकृत होती है, १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १३४६ २. वही, पृष्ठ १३४७ ३. वही, पृष्ठ १३४८
गाथा १५९ : शुद्धोपयोगाधिकार
१७७ जबकि जानना स्वयंभूत है, परकृत नहीं। आत्मा स्व को जानते हुए भी पर को स्पष्ट जान लेता है - यही उसका स्वभाव है।
सहजज्ञान के लिए ज्ञान ही स्व है और उससे भिन्न अन्यगुण पर हैं। वे परस्पर लक्षणादि की अपेक्षा भिन्न हैं; परन्तु प्रदेश (क्षेत्र) की अपेक्षा भिन्न नहीं हैं। अतः ज्ञान (केवलज्ञान) निश्चय से भी स्व-परप्रकाशी सिद्ध होता है।” ____ इसप्रकार हम देखते हैं कि गाथा, टीका और टीका में समागत छन्द तथा आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी के विवेचन से एक बात पूर्णतः स्पष्ट हो रही है कि केवली भगवान का पर को जानना असत्यार्थ नहीं है। उनके पर को जानने को व्यवहार तो मात्र इसलिए कहा जाता है कि वे पर को तन्मय होकर नहीं जानते, वे उसमें लीन नहीं होते, उनका उनमें अपनापन नहीं है।
वस्तुतः तन्मय होकर जानने का अर्थ उनमें अपनेपन पर्वक जानना होता है। केवली भगवान का या किसी भी ज्ञानी धर्मात्मा का परपदार्थों में अपनापन नहीं होता; न तो वे उसे अपना जानते हैं, न अपना मानते हैं और न उनमें लीन होते हैं; मात्र जानते हैं। उनके इस स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए लगभग सर्वत्र ही यह कहा गया है कि वे परपदार्थों को तन्मय होकर नहीं जानते। उनके पर को जानने को व्यवहार तो मात्र इसीलिए कहा गया है। वे उन्हें जानते ही नहीं हैं ह्र ऐसा अभिप्राय उनका कदापि नहीं है।
निश्चय से स्व-पर प्रकाशक की बात आतमद्रव्य की अपेक्षा ज्ञान गुण या उसकी सम्यग्ज्ञानरूप पर्याय पर भली प्रकार घटित होता है: क्योंकि सुखादि गुण और उनकी पर्यायें ज्ञानगुण या उसकी सम्यग्ज्ञानरूप पर्याय से कथंचित् भिन्न हैं, पर आत्मा से नहीं; क्योंकि आत्मा में तो सभी स्व के रूप में ही समाहित हैं।
एक बात और भी ध्यान देने योग्य है कि जब ज्ञान व्यवहारनय से सभी को जानता है तो उसमें पर के साथ स्व भी आ जाता है। अत: वह १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १३४९