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नियमसार अनुशीलन निर्जरा और मोक्ष एक समय की पर्याय हैं, वे परम आत्मा नहीं हैं। पुण्य-पाप से रहित तथा एक समय की पर्याय से भी रहित त्रिकाली ध्रुव आत्मा परमात्मा कहलाता है। यह अपना आत्मा नित्य आनन्दवाला है, सत्, चित् और आनन्द की मूर्ति है, शांत स्वभाववाला है, सदा एकरूपस्वभाववाला है ऐसे आत्मा के आश्रय से सम्यग्दर्शन और वीतरागता प्रगट होती है।
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यहाँ टीकाकार मुनिराज कहते हैं कि अनन्त जीवों ने शुद्ध आत्मा आश्रय से ही केवलज्ञान प्राप्त किया है; अतः तू भी वैसा ही कर । निज आत्मा में शीघ्र प्रवेश कर । २"
निश्चय परम आवश्यक अधिकार के उपसंहार के इस छन्द में टीकाकार मुनिराज स्वयं अपने चित्त (मन) से यह कह रहे हैं कि हे चित्त ! तू हेयरूप स्त्री-पुत्रादि एवं धन-धान्यादि, सुवर्णादि परिग्रह के मोह को छोड़कर, आत्मिक सुख के लिए परम गुरु अरहंतदेव से प्राप्त धर्म को प्राप्त करके सर्व प्रकार की आकुलता से रहित अव्यग्र, अनुपम गुणों से अलंकृत, नित्यानन्द और दिव्य ज्ञानवाले अपने त्रिकाली ध्रुव आत्मा में प्रवेश कर, अपने आत्मा का ध्यान कर, उसमें ही रम जा, जम जा; यहाँ-वहाँ क्यों भटकता है ? अतीन्द्रिय आनन्द की प्राप्ति तो अपने आत्मा के ज्ञान-ध्यान से ही होनेवाली है; किसी अन्य के आत्मा से नहीं ।
अतः हे मुनिवरो ! तुम एकमात्र अपने आत्मा का ध्यान करो, उसमें ही जमे रहो, रमे रहो, उसमें समा जावो। अनन्त सुख प्राप्त करने का एकमात्र यही उपाय है ।। २७१ ।।
अधिकार के अन्त में टीकाकार मुनिराज स्वयं लिखते हैं कि इसप्रकार सुकविजनरूपी कमलों के लिए जो सूर्य समान हैं और पाँच इन्द्रियों के विस्तार रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था, ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसार (आचार्य कुन्दकुन्द प्रणीत) की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में निश्चय परमावश्यकाधिकार नामक ग्यारहवाँ श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ ।
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १३३०
२. वही, पृष्ठ १३३१
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शुद्धोपयोगाधिकार
( गाथा १५९ से गाथा १८७ तक) नियमसार गाथा १५९
नियमसार परमागम में शुद्धोपयोगाधिकार का आरंभ करते हुए टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव लिखते हैं ह्र
“अब समस्त कर्मों के प्रलय करने के हेतुभूत शुद्धोपयोग अधिकार कहा जाता है। "
शुद्धोपयोग अधिकार की तात्पर्यवृत्ति टीका की प्रथम पंक्ति में ही टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव घोषणा करते हैं कि 'यह शुद्धोपयोग समस्त कर्मों का नाश करनेवाला है।'
अतः जिन्हें कर्मों से मुक्त होना हो, वे इस शुद्धोपयोग अधिकार की विषयवस्तु को गहराई से समझें ।
नियमसार परमागम की १५९वीं एवं शुद्धोपयोग अधिकार की पहली गाथा मूलतः इसप्रकार है ह्र
जादि पस्सदि सव्वं ववहारणएण केवली भगवं । केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाणं ।। १५९ ।।
( हरिगीत )
निज आतमा को देखें जानें केवली परमार्थ से।
पर जानते हैं देखते हैं सभी को व्यवहार से || १५९ ।। व्यवहारनय से केवली भगवान सभी पदार्थों को देखते - जानते हैं। निश्चयन से केवली भगवान आत्मा को अर्थात् स्वयं को ही देखतेजानते हैं।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव तात्पर्यवृत्ति टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र