Book Title: Niyamsara Anushilan
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 86
________________ १७० नियमसार अनुशीलन से श्रेणी चढ़कर केवलज्ञान प्राप्त करते हैं।" इसप्रकार हम देखते हैं कि इस गाथा और उसकी टीका में यही कहा गया है कि मुक्ति प्राप्त करने का एक ही उपाय है। आजतक भूतकाल में जितने भी पौराणिक महापुरुषों ने मुक्ति प्राप्त की है, वर्तमान में विदेहादि क्षेत्र से जो निकट भव्य जीव मुक्ति प्राप्त कर रहे हैं और भविष्य में भी जो जीव मुक्ति प्राप्त करेंगे; वे सभी निश्चय धर्मध्यान और शुक्लध्यानरूप परमावश्यक प्राप्त करके मुक्ति की प्राप्ति करेंगे। कहा भी है कि 'एक होय त्रयकाल में परमारथ को पंथ'।।१५८।। इसके बाद टीकाकार मुनिराज दो छन्द लिखते हैं, जिसमें से पहला छन्द इसप्रकार है तू (शार्दूलविक्रीडित ) स्वात्माराधनया पुराणपुरुषाः सर्वे पुरा योगिनः प्रध्वस्ताखिलकर्मराक्षसगणा ये विष्णवो जिष्णवः । तान्नित्यं प्रणमत्यनन्यमनसा मुक्तिस्पृहो निस्पृहः सस्यात् सर्वजनार्चितांघ्रिकमल: पापाटवीपावकः ।।२७०।। (ताटंक या वीर ) अरे पुराण पुरुष योगीजन निज आतम आराधन से। सभी करमरूपी राक्षस के पूरी तरह विराधन से || विष्णु-जिष्णु हुए उन्हीं को जो मुमुक्षु पूरे मन से। नित्य नमन करते वे मुनिजन अघ अटवी को पावक हैं।।२७०|| पुरातन काल में हुए सभी पुराणपुरुष योगीजन, निज आत्मा की आराधना से, समस्त कर्मरूपी राक्षसों के समदाय का नाश करके. विष्णु अर्थात् व्यापक सर्वव्यापी ज्ञानवाले और जिष्णु अर्थात् जीतनेवाले जयवन्त हुए हैं; उनको मुक्ति की स्पृहावाला जगत से निष्प्रह जो जीव अनन्य मन से नित्य नमन करता है; वह जीव पापरूपी अटवी को जलाने में अग्नि समान है और उसके चरण कमलों की पूजा सर्वजन करते हैं। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १३१४-१३१५ गाथा १५८ : निश्चय परमावश्यक अधिकार इस छन्द में यह कहा गया है कि भूतकाल में जिन पुराणपुरुषों ने अपने भगवान आत्मा की आराधना करके कर्मों का नाश किया है, अनंतज्ञान और अनंतसुख प्राप्त किया है; वे सभी सम्पूर्ण लोक को जानने के कारण सर्वव्यापी विष्णु और कर्मों को जीतने के कारण जिष्णु अर्थात् जयवंत हुए हैं, उन्हें मुमुक्षु जीव नित्य नमन करते हैं। ऐसे जीव पापरूपी भयंकर जंगल को जलानेवाले हैं, पापभावों से रहित हैं।।२७०।। दूसरा छन्द इसप्रकार है ह्र (मंदाक्रांता) मुक्त्वा मोहं कनकरमणीगोचरं हेयरूपं नित्यानन्दं निरुपमगुणालंकृतं दिव्यबोधम् । चेतः शीघ्रं प्रविश परमात्मानमव्यग्ररूपं लब्ध्वा धर्मं परमगुरुत: शर्मणे निर्मलाय ।।२७१।। (ताटंक या वीर) कनक-कामिनी गोचर एवं हेयरूप यह मोह छली। इसे छोड़कर निर्मल सुख के लिए परम पावन गुरु से ।। धर्म प्राप्त करके हे आत्मन् निरुपम निर्मल गुणधारी। दिव्यज्ञान वाले आतम में तू प्रवेश कर सत्वर ही ।।२७१।। हे चित्त ! तू हेयरूप कनक-कामिनी संबंधी मोह को छोड़कर, निर्मल सुख के लिए परमगुरु द्वारा धर्म को प्राप्त करके अव्यग्ररूप निरुपम गुणों से अलंकृत नित्य आनन्द और दिव्यज्ञानवाले, परमात्मा (अपने आत्मा) में शीघ्र प्रवेश कर। इस छन्द के भाव को आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “गुरु शिष्य से कहते हैं कि तुम शान्तस्वरूपी, नित्य आनन्दमय, निरुपम गुणों से युक्त और दिव्यज्ञानवाले परमात्मा में शीघ्र प्रवेश करो। यहीं टीकाकार मुनिराज स्वयं स्वयं को संबोधित करते हैं। वास्तव में स्वयं का आत्मा ही परम आत्मा है; वही शान्तस्वरूपी है। शरीरादि अजीव हैं, पर हैं, पुण्य-पाप के भाव आकुलतास्वरूप हैं। संवर 86

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