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नियमसार अनुशीलन शब्द जड़ हैं और प्रत्याख्यान लेने का भाव शुभ है। नियम अर्थात् चारित्र सम्बन्धी शब्द जड़ हैं और मोक्षमार्ग अंगीकार करने सम्बन्धी नियम लेना शुभराग है। आलोचना में बोले जानेवाले शब्द जड़ हैं और आलोचना का भाव शुभ है। - व्यवहार है। शुभाशुभ रहित आत्मा ज्ञानस्वभावी है - ऐसा भान हो तो शुभभाव को भी व्यवहार कहते हैं। ये समस्त प्रशस्तभाव असत् क्रिया है/आस्रव है - ऐसा तू जान!
इन प्रतिक्रमण आदि समस्त वचन सम्बन्धी शुभभाव का अभाव करके स्वभाव में ठहरना ही कर्तव्य है।'
प्रथम व्यवहार बताया, सच्चे भावलिंगी संतों द्वारा बनाये हुए शास्त्रों की विधि कही। उसके लक्ष्य से शुभराग होता है तथा अशुभ का नाश होता है । जबतक स्वरूप में स्थिर न हो सके, तबतक मुनि को भी सुनने का शुभराग आता है, परन्तु वे शुभराग तथा वाणी को उपादेय नहीं मानते; परन्तु साधकदशा में शुभराग आये बिना नहीं रहता। पाक्षिकादि व्यवहार प्रतिक्रमण शुभराग है, आस्रव है, पुण्यबंध का कारण है और पुण्य का अभाव करके अपने आत्मा में स्थिर होना धर्म है। प्रत्याख्यान, नियम और आलोचना की व्यवहारविधि भी जड़ है, उसे लेने का भाव शुभ है, पुण्य है, उसमें वाणी निमित्त होती है, परन्तु वह धर्म नहीं है; क्योंकि वे सभी पौद्गलिक वचनमय होने से स्वाध्याय हैं ह्र प्रशस्त शुभभाव हैं ह्र ऐसा हे शिष्य तू जान!"
इस गाथा और उसकी टीका में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में कहा है कि सर्वज्ञदेव की वाणी के अनुसार गणधरदेव द्वारा ग्रथित और भावलिंगी संतों द्वारा प्रतिपादित द्वादशांग श्रुत में कहे गये वचनरूप व्यवहार प्रतिक्रमणादि हेय हैं, बंध के कारण हैं; मुक्ति के कारण नहीं ।।१५३।।
इसके बाद टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव एक छन्द लिखते हैं; जो इसप्रकार है तू
गाथा १५३ : निश्चय परमावश्यक अधिकार
(मंदाक्रांता) मुक्त्वा भव्यो वचनरचनां सर्वदातः समस्तां निर्वाणस्त्रीस्तनभरयुगाश्लेषसौख्यस्पृहाढ्यः । नित्यानंदाद्यतुलमहिमाधारके स्वस्वरूपे स्थित्वा सर्वं तृणमिव जगज्जालमेको ददर्श ।।२६३।।
(रोला) मुक्ति सुन्दरी के दोनों अति पुष्ट स्तनों।
के आलिंगनजन्य सुखों का अभिलाषी हो। अरे त्यागकर जिनवाणी को अपने में ही।
थित रहकर वह भव्यजीव जग तृणसम निरखे||२६३|| मुक्तिरूपी स्त्री के पुष्ट स्तन युगल के आलिंगन के सुख की इच्छा वाले भव्यजीव समस्त वचनरचना को सर्वदा छोड़कर, नित्यानन्द आदि अतुल महिमा के धारक निजस्वरूप में स्थित होकर सम्पूर्ण जगतजाल (लोकसमूह) को तृण समान तुच्छ देखते हैं।
इस छन्द के भाव को आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न
"मुनिराज महाब्रह्मचारी होते हैं। जंगल में अपने आत्मा का ध्यान करते हैं। अन्तर्मुहूर्त में छठवें-सातवें गुणस्थान में झूलते हैं। उन्हें जगत की महिमा नहीं होती। अन्तर-आनन्द में लीन रहते हैं। यह लीनता ही मुक्ति का कारण है। आत्मा की मस्ती में मस्त मुनिराज ने यहाँ जगत की परवाह किये बिना मुक्ति को स्त्री की उपमा दी है।
वे कहते हैं कि हे जीव ! तुझे इस सांसारिक स्त्री से प्रेम है; परन्तु वह तो संसार का कारण है। आत्मा की परिणति रूपी स्त्री जो आत्मद्रव्य से कभी जुदी नहीं होती, अब तू उसके प्रति प्रेम कर! सिद्ध भगवान के लिए सिद्धदशा का कभी विरह नहीं होता। इसलिए तू भी अब उस परिणति को प्रगट कर! ___यहाँ सांसारिक स्त्री का मोह छोड़कर मुक्तिरूपी स्त्री को प्राप्त करने की प्रेरणा दी है। जो तेरी स्त्री तुझसे छूट जाय, वह तेरी स्त्री नहीं है।
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१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १११ २. वही, पृष्ठ ११२