Book Title: Niyamsara Anushilan
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 78
________________ १५४ नियमसार अनुशीलन ___ "मुनियों को अप्रशस्त राग बहुत अल्प होता है। देव-गुरु की भक्ति, स्वाध्याय, पठन-पाठन का राग प्रशस्त है, उस राग को भी संसार का करनेवाला कहा है। व्यवहार करते-करते धर्म हो जायेगा - यह बात तो यहाँ है ही नहीं; परन्तु आत्मा के भानपूर्वक मुनियों को जो अस्थिरताजन्य शुभराग आता है, वह भी घोर संसार है। वचनरचना अर्थात् प्रतिक्रमण प्रायश्चित आदि की भाषा तो जड़ है, आत्मा उसे कर नहीं सकता, इसीप्रकार आत्मा उसे छोड़ भी नहीं सकता है; परन्तु वह पाठ बोलने संबंधी प्रशस्त राग को छोड़ता है ह ऐसा भावार्थ है।' ___परपदार्थ से रहित, विकार से रहित अविकारी ज्ञानानंदस्वभाव में श्रद्धान, ज्ञान और लीनता करने पर मोह-राग-द्वेष उत्पन्न ही नहीं होते। इसे ही मोह को छोड़ा ह ऐसा कहा जाता है। आत्मा में जड़ का ग्रहणत्याग तो है ही नहीं; परन्तु विकार को छोड़ना ये भी नाममात्र है। विकार पर्यायबुद्धि से नहीं छूटता; परन्तु स्वभावबुद्धि होने पर विकार उत्पन्न ही नहीं होता। ___ इसप्रकार कनक-कामिनी के मोह को छोड़कर अपनी परमानंद दशा प्राप्त करने के लिए अपने से अपने को अपने में ही अविचल करो ह्न स्थिर करो। व्यवहार राग और व्यवहार रत्नत्रय से कल्याण नहीं होता, परन्तु अपने से ही कल्याण होता है। इसलिए निमित्त में, राग में स्थित होने को नहीं कहा; परन्तु अपने शुद्धस्वभाव में स्थित होने को कहा है।" ___ इस छन्द में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में यह कहा गया है कि आतमज्ञानी मुमुक्षु जीव तो अज्ञानियों द्वारा उत्पन्न लौकिक भय, घोर संसार का कारण प्रशस्त और अप्रशस्त वचनरचना तथा कनक-कामिनी संबंधी मोह को छोड़कर मुक्ति प्राप्त करने के लिए अपने आत्मा में जम जाते हैं, रम जाते हैं, समा जाते हैं। गाथा १५५ : निश्चय परमावश्यक अधिकार १५५ तात्पर्य यह है कि यदि हम भी अपना कल्याण करना चाहते हैं तो मन, वचन और काय संबंधी समस्त प्रपंचों का त्याग कर हमें भी स्वयं में समा जाना चाहिए। अपने में अपनापन स्थापित करके स्वयं के ज्ञान-ध्यान में लग जाना चाहिए; क्योंकि स्वयं के श्रद्धान और ज्ञानध्यान में सभी निश्चय परमावश्यक समाये हुए हैं ।।२६५।। दूसरा छन्द इसप्रकार है तू (वसंततिलका) भीतिं विहाय पशुभिर्मनुजैः कृतां तं मुक्त्वा मुनिः सकललौकिकजल्पजालम् । आत्मप्रवादकुशलः परमात्मवेदी प्राप्नोति नित्यसुखदं निजतत्त्वमेकम् ।।२६६ ।। (हरिगीत ) कुशल आत्मप्रवाद में परमात्मज्ञानी मुनीजन | पशुजनों कृत भयंकर भय आत्मबल से त्याग कर। सभी लौकिक जल्प तज सुखशान्तिदायक आतमा । को जानकर पहिचानकर ध्यावें सदा निज आतमा ||२६६|| आत्मप्रवाद नामक श्रुत में कुशल परमात्मज्ञानी मुनि पशुजनों (अज्ञानीजनों) द्वारा किये जानेवाले भय को छोड़कर और सम्पूर्ण लौकिक जल्पजाल को तजकर शाश्वत सुखदायक एक निज तत्त्व को प्राप्त होता है। ___आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस छन्द के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न “यहाँ ऐसे मुनिराज को परमात्मज्ञानी कहा है कि जो मुख्यतः आत्मा का वर्णन करनेवाले शास्त्रों में कुशल हैं, अध्यात्मतत्त्व के मर्म को जाननेवाले अध्यात्मज्ञानी हैं, छठवें-सातवें गुणस्थान के आनन्द प्रवाह में झूलते हैं। परपदार्थ में फेर-बदल करना तो आत्मा के स्वभाव में है ही नहीं, १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १२७७ १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १२७५ २. वही, पृष्ठ १२७६

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