Book Title: Niyamsara Anushilan
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 73
________________ १४४ नियमसार अनुशीलन शुभ-अशुभ भाव विकारी भाव हैं, वे भी एक धारावाही नहीं हैं। शुभ के बाद अशुभ होता है।" इस छन्द में टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव मुक्ति को स्त्री के रूप में प्रस्तुत करते हुए जिसप्रकार के विशेषणों का प्रयोग करते हैं; उनसे कुछ रागी गृहस्थों को अनेक तरह के विकल्प खड़े होते हैं। उनके वे विकल्प उनकी ही कमजोरी को व्यक्त करते हैं; क्योंकि मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव तो पूर्ण ब्रह्मचारी भावलिंगी सन्त थे। कहा जाता है कि महापुराण के कर्ता आचार्य जिनसेन के प्रति भी लोगों में इसप्रकार के भाव उत्पन्न हुए थे; क्योंकि उन्होंने महापुराण में नारी के वर्णन में श्रृंगार रस का विशेष वर्णन किया था। लोगों के विकल्पों को शान्त करने के लिए उन्होंने खड़े होकर उसी प्रकरण का गहराई से विवेचन किया; फिर भी उनके किसी भी अंग में कोई विकृति दिखाई नहीं दी: तो सभी के इसप्रकार के विकल्प सहज ही शान्त हो गये। अत: उक्त संदर्भ में किसी भी प्रकार के विकल्प खड़े करना समझदारी का काम नहीं है ।।२६३|| इसके बाद टीकाकार मुनिराज 'तथा चोक्तं ह्न तथा कहा भी है' ह्र ऐसा कहकर एक गाथा उद्धृत करते हैं; जो इसप्रकार है ह्र परियट्टणं च वायण पुच्छण अणुपेक्खणा य धम्मकहा। थुदिमंगलसंजुत्तो पंचविहो होदि सज्झाउ ।।७२।।' (हरिगीत ) परीवर्तन वाँचना अर पृच्छना अनुप्रेक्षा। स्तुति मंगल पूर्वक यह पंचविध स्वाध्याय है।।७२|| पढे हुए को दुहरा लेना, वाचना, पृच्छना (पूंछना), अनुप्रेक्षा और धर्मकथा ह्र ऐसे ये पाँच प्रकार का स्तुति व मंगल सहित स्वाध्याय है। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “वीतरागी सर्वज्ञ भगवान के शासन में सर्वज्ञकथित श्रुत/शास्त्र १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ११२ २. श्रीमूलाचार, पंचाचार अधिकार, गाथा २१९ गाथा १५३ : निश्चय परमावश्यक अधिकार को पुनः-पुन: याद करना, बारम्बार घोकना, पढ़े हुए विषय को फिर से याद करना ह्र ये सब शुभ स्वाध्याय है, पुण्य है; धर्म नहीं। शास्त्र का व्याख्यान करना वह भी शुभ है, पुण्य है; धर्म नहीं। तत्त्वार्थसूत्र में बारह भावनाओं को संवर कहा है; परन्तु वहाँ संवर कहने का अभिप्राय यह है कि शुद्ध आत्मा के भानपूर्वक जितनी एकाग्रता होती है, उतना संवर है। बाकी जितने अंश में राग वर्तता है, उतना पुण्य है। ६३ शलाका महापुरुषों का चरित्र सुनना अथवा पुराणों का पढ़ना, वह शुभराग है; धर्म नहीं। इसप्रकार वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश ह्र यह पाँच प्रकार का स्वाध्याय पुण्यास्रव है, धर्म नहीं। आत्मा के अवलम्बनपूर्वक जो श्रद्धा तथा वीतरागता प्रगट होती है, वह धर्म है। इसलिए हे भव्य! सर्वप्रथम आत्मस्वरूप की यथार्थ पहिचान करना चाहिए।" इस गाथा में जो स्वाध्याय के पाँच भेद गिनाये गये हैं; वे तत्त्वार्थसूत्र में समागत भेदों से कुछ भिन्न दिखाई देते हैं। तत्त्वार्थसूत्र में स्वाध्याय के पाँच भेद इसप्रकार दिये हैं ह्र वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश । यहाँ प्रतिपादित पहला भेद परिवर्तन तत्त्वार्थसूत्र के चतुर्थ भेद आम्नाय से मिलता-जुलता है। इसीप्रकार यहाँ कहा गया अन्तिम भेद धर्मकथा तत्त्वार्थसूत्र में समागत अन्तिम भेद धर्मोपदेश से मिलताजुलता है। इसप्रकार हम देखते हैं कि इनमें कोई अन्तर नहीं है ।।७२।। . १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ११३ २. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ९, सूत्र २५ यद्यपि निर्वाण महोत्सव भी खुशी का महोत्सव है, क्योंकि यह आत्मा की सर्वोच्च उपलब्धि का दिन है; तथापि इस खुशी में चंचलता, खेलकूद, बढ़ियाबढ़िया, खान-पान आदि को कोई स्थान नहीं है; क्योंकि वह भगवान के संयोग का नहीं, वियोग का दिन है। हपंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव, पृष्ठ-८२ 73

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