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नियमसार गाथा १५१ विगत गाथाओं में आवश्यक रहित अन्तर्बाह्य विकल्पवाले श्रमणों को बहिरात्मा कहा था; अब यहाँ इस गाथा में धर्म और शुक्लध्यान रहित श्रमणों को भी बहिरात्मा कहा जा रहा है। गाथा मूलत: इसप्रकार है तू
जो धम्मसुक्कझाणम्हि परिणदो सो वि अंतरंगप्पा । झाणविहीणो समणो बहिरप्पा इदि विजाणीहि ।।१५१।।
(हरिगीत) हैं धरम एवं शकल परिणत श्रमण अन्तर आतमा।
पर ध्यान विरहित श्रमण है बहिरातमा यह जान लो।।१५१|| धर्मध्यान और शुक्लध्यान में परिणत आत्मा अन्तरात्मा है और ध्यानविहीन श्रमण बहिरात्मा है तू ऐसा जानो।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न
“यहाँ इस गाथा में स्वात्माश्रित निश्चय धर्मध्यान व निश्चय शुक्लध्यान ह्न यह दो ध्यान ही उपादेय हैं ह्र ऐसा कहा है।
इस लोक में वस्तुतः साक्षात् अन्तरात्मा तो क्षीणकषाय भगवान ही है। वस्तुत: उन क्षीणकषाय भगवान (बारहवें गुणस्थानवाले) के सोलह कषायों का अभाव होने से दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय कर्मरूपी योद्धाओं के दल विलय को प्राप्त हो गये हैं; अतः वे भगवान क्षीणकषाय सहज चिद्विलास लक्षण अति अपूर्व आत्मा को शुद्ध निश्चय धर्मध्यान और शुद्ध निश्चय शुक्लध्यान द्वारा नित्य ध्याते हैं।
इन दो ध्यानों रहित द्रव्यलिंग धारी द्रव्य श्रमण बहिरात्मा हैं। हे शिष्य तू ऐसा जान।"
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न
गाथा १५१ : निश्चय परमावश्यक अधिकार
"चौथे गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान तक जो निर्मलता होती है, वह एक ही उपाय से होती है। सहज चिद्विलासलक्षणरूप क्रिया ही एकमात्र इसका उपाय है। पुण्य की क्रिया या शरीर की क्रिया इसका उपाय नहीं है। पर में फेरफार करना तो आत्मा का स्वरूप है ही नहीं, परन्तु राग में फेरफार करना भी आत्मा का स्वरूप नहीं है। अपने सहजस्वरूप में लीन होने पर राग का नाश हो जाता है।
इसप्रकार सम्यक्त्वभाव में ज्ञान का ज्ञानरूप परिणम जाना अर्थात् संवर-निर्जरारूप परिणमना ही धर्मध्यान है। ___ आत्मा के भानपूर्वक ध्यान होता है, जिसको इसकी खबर नहीं है
और पुण्य से धर्म मानता है, वह जीव नग्न दिगम्बर मुनि हो तो भी द्रव्यलिंगी है। इसका कारण यह है कि 'अन्तरस्वभाव के आश्रय से ही मोक्षमार्ग होता है' ह्न इसकी खबर उसे नहीं है।"
देखो, यहाँ आचार्यदेव और टीकाकार मनिराज निश्चय धर्मध्यान और शुक्लध्यान को ही उपादेय बताने के लिए इन ध्यानों से रहित मुनिराजों को न केवल द्रव्यलिंगी, अपितु बहिरात्मा कह रहे हैं।
आशय यह है कि जिनके निश्चय धर्मध्यान और शक्लध्यान बिल्कल हैं ही नहीं; वे श्रावक और मुनिराज बहिरात्मा हैं; वे नहीं कि जिनके आहार-विहारादि के काल में निश्चय धर्मध्यान व शुक्लध्यान नहीं हैं॥१५॥
इसके बाद टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव जो छन्द लिखते हैं; वह इसप्रकार है तू
(वसंततिलका) कश्चिन्मुनि: सततनिर्मलधर्मशुक्ल
ध्यानामृते समरसे खलु वर्ततेऽसौ । ताभ्यां विहीनमुनिको बहिरात्मकोऽयं
पूर्वोक्तयोगिनमहं शरणं प्रपद्ये ॥२६०।। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ९९-१०० २. वही, पृष्ठ १०१
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