________________
१३६
नियमसार अनुशीलन (वीरछन्द) धरम-शुकलध्यान समरस में जो वर्ते वे सन्त महान । उनके चरणकमल की शरणा गहें नित्य हम कर सन्मान || धरम-शुकल से रहित तुच्छ मुनि करन सके आतमकल्याण। संसारी बहिरातम हैं वे उन्हें नहीं निज आतमज्ञान ||२६०|| जो कोई मुनि वस्तुत: निर्मल धर्म व शुक्लध्यानामृतरूप समरस में निरन्तर वर्तते हैं; वे अन्तरात्मा हैं और जो तुच्छ मुनि इन दोनों ध्यानों से रहित हैं; वे बहिरात्मा हैं। मैं उन समरसी अन्तरात्मा मनिराजों की शरण लेता हूँ।
इस छन्द में टीकाकार मुनिराज निश्चय धर्मध्यान और शुक्लध्यान में वर्तनेवाले उत्कृष्ट अंतरात्मा मुनिराजों की शरण में जाने की बात कर रहे हैं ।।२६०।। इसके बाद दूसरा छन्द कहते हैं ह्न
(अनुष्टुभ् ) बहिरात्मान्तरात्मेति विकल्प: कुधियामयम् । सुधियां न समस्त्येष संसाररमणीप्रियः ।।२६१।।
(वीरछन्द) बहिरातम-अन्तरातम के शुद्धातम में उठे विकल्प। यह कुबुद्धियों की परिणति है ये मिथ्या संकल्प-विकल्प|| ये विकल्प भवरमणी को प्रिय इनका है संसार अनन्त ।
ये सुबुद्धियों को न इष्ट हैं, उनका आया भव का अन्त ||२६१|| शुद्ध आत्मतत्त्व में 'यह बहिरात्मा है, यह अन्तरात्मा है' ह्न ऐसा विकल्प कुबुद्धियों को होता है। संसाररूपी रमणी (रमण करानेवाली) को प्रिय यह विकल्प, सुबुद्धियों को नहीं होता। इस कलश का भाव स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
“शुद्ध आत्मतत्त्व में शरीर-मन-वाणी आदि बाह्यपदार्थों का अत्यन्त अभाव है। फिर भी जो जीव इनसे धर्म मानता है, देव-शास्त्र-गुरु से धर्म मानता है, कुगुरु से कल्याण मानता है, वह बहिरात्मा है, मिथ्यादृष्टि है।
और जो आत्मा को परिपूर्ण शुद्ध मानता है, उसी के आश्रय से कल्याण मानता है, वह अन्तरात्मा है, मोक्षमार्गी है।
गाथा १५१ : निश्चय परमावश्यक अधिकार
१३७ बहिरात्मपना एक समय की उल्टी पर्याय है और अन्तरात्मपना एक समय की सीधी/अविपरीत पर्याय है। यह बहिरात्मपना है और यह अन्तरात्मपना है' द्रव्यस्वभाव में ऐसा भेद नहीं होता, वस्तु अभेद है; फिर भी जो उसमें भेद देखता है, वह कुबुद्धि है । तात्पर्य यह है कि अभेद में भेद देखने की कल्पना कुबुद्धियों को ही होती है। ___ जहाँ तक अज्ञानदशा वर्तती है, वहाँ तक मिथ्यादृष्टिपना है और आत्मा का भान करनेवाला चतुर्थ गुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि है और इसके आगे-आगे शद्धता बढ़ने पर क्रमशः श्रावकपना व मनिपना होता है। __ सोने की और तांबे की खान पास-पास में हो और कोई सोने का अर्थी तांबे की खान खोदने लग जाय तो मूर्ख ही कहलायेगा । इसीप्रकार दया-दानादि के विकारीभाव करना अथवा अभेद में भेद करना तांबे की खान के समान संसार की खान है और शुद्धचैतन्य त्रिकाली स्वभाव सोने की खान के समान मोक्ष की खान है, उसके आश्रय से मोक्षमार्ग एवं मोक्ष प्रगट होता है।३ ___ लौकिक बुद्धिजीवी वकील, डॉक्टर आदि को सुबुद्धि नहीं कहा, मात्र शास्त्र पढ़नेवाले को सुबुद्धि नहीं कहा; जो अन्तरात्मा और बहिरात्मा ऐसा भेद करता है, उसे भी सुबुद्धि नहीं कहा; जो एक में दोपने का भेद करता है, उसे भी सुबुद्धि नहीं कहा; परन्तु जो वस्तुस्वभाव को सामान्य एकरूप अभेद-अखण्ड मानता है, द्रव्यस्वभाव में पर्याय का भेद भी नहीं देखता, उसे ही यहाँ सुबुद्धि कहा गया है।"
देखो, आचार्यदेव अनेक गाथाओं में बहिरात्मा और अन्तरात्मा का भेद समझाते आ रहे हैं और यहाँ टीकाकार मुनिराज यह कह रहे हैं कि इसप्रकार के विकल्प कुबुद्धियों को होते हैं, सुबुद्धियों को नहीं । तात्पर्य यह है कि इसप्रकार के विकल्प भी हेय ही हैं, उपादेय नहीं; ज्ञानी जीव इन विकल्पों को भी बंध का कारण ही मानते हैं, मुक्ति का कारण नहीं ।।२६१।। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १०३
२. वही, पृष्ठ १०३ ३. वही, पृष्ठ १०३
४. वही, पृष्ठ १०४