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नियमसार अनुशीलन
रोला )
परमातम से भिन्न सभी जिय बहिरातम अर | अन्तर आतमरूप कहे हैं दो प्रकार के ॥ देह और आतम में धारे अहंबुद्धि जो ।
वे बहिरातम जीव कहे हैं जिन आगम में || ६९ || अन्तरात्मा उत्तम मध्यम जघन कहे हैं।
क्षीणमोह जिय उत्तम अन्तर आतम ही है । अविरत सम्यग्दृष्टि जीव सब जघन कहे हैं।
इन दोनों के बीच सभी मध्यम ही जानो ||७०|| अन्य समय अर्थात् परमात्मा को छोड़कर बहिरात्मा और अन्तरात्मा ह्न इसप्रकार जीव दो प्रकार के हैं। उनमें शरीर और आत्मा में आत्मबुद्धि धारण करनेवाला, अपनापन स्थापित करनेवाला बहिरात्मा है।
जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से अन्तरात्मा तीन प्रकार के हैं। उनमें अविरत सम्यग्दृष्टि जघन्य अन्तरात्मा हैं और क्षीणमोही उत्कृष्ट अन्तरात्मा हैं और इनके मध्य में स्थित मध्यम अन्तरात्मा हैं।
उक्त छन्दों का भाव एकदम स्पष्ट और सहज सरल है; अतः उक्त संदर्भ में कुछ कहना अभीष्ट नहीं है ।। ६९-७० ।।
इसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव एक छन्द स्वयं लिखते हैं; जो इसप्रकार है ह्र
( मंदाक्रांता ) योगी नित्यं सहजपरमावश्यकर्मप्रयुक्तः संसारोत्थप्रबल सुखदुःखाटवीदूरवर्ती । तस्मात्सोऽयं भवति नितरामन्तरात्मात्मनिष्ठः स्वात्मभ्रष्टो भवति बहिरात्मा बहिस्तत्त्वनिष्ठः ।। २५८ ।। (रोला ) योगी सदा परम आवश्यक कर्म युक्त हो ।
भव सुख दुख अटवी से सदा दूर रहता है | इसीलिए वह आत्मनिष्ठ अन्तर आतम है।
स्वात्मतत्त्व से भ्रष्ट आतमा बहिरातम है ।। २५८ ।।
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गाथा १४९ : निश्चय परमावश्यक अधिकार
योगी सदा सहज परमावश्यक कर्म से युक्त रहता हुआ संसारजनित सुख-दुखरूपी अटवी (भयंकर जंगल) से दूरवर्ती होता है। इसलिए वह योगी अत्यन्त आत्मनिष्ठ अन्तरात्मा है। जो स्वात्मा से भ्रष्ट है, वह बाह्य पदार्थों में अपनापन करनेवाला बहिरात्मा है।
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उक्त छन्द का भाव आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस प्रकार स्पष्ट करते हैं
"सर्वज्ञ वीतराग भगवान के मार्ग में निश्चय-व्यवहार में प्रवीण निश्चय स्वभावाश्रित अकेले अन्तरंग ज्ञायकस्वभाव में जो वीतरागी दृष्टि एवं वीतरागी स्थिरता करता है, वह योगी है। यह योगी सदा सहज परमावश्यकरूप स्वाधीन समतारूपी कर्म से जुड़ा हुआ है, अन्य किसी भी प्रकार के राग में नहीं जुड़ा है। वह योगी निश्चय रत्नत्रय में वर्तता हुआ संसारजनित प्रबल सुख-दुःखरूपी अटवी से बहुत दूर रहता है। इसलिए वह योगी अत्यन्त आत्मनिष्ठ अन्तरात्मा है । "
पराश्रय से धर्म होता है, गुरु की कृपा से कल्याण होता है, द्रव्यक्षेत्र काल-भाव के अच्छे समागम से कल्याण होता है - जो ऐसा मानता है, वह बाह्यतत्त्व में लीन मिथ्यादृष्टि है, आत्मा से भ्रष्ट है और बाह्य में देह-राग तथा पुण्यास्रवरूप बाह्यतत्त्व में लीन होने से मूढ़ है।
जो अपनी अन्तरंगशक्ति से अपने परिपूर्ण तत्त्व को न मानकर किसी बाह्य अवलम्बन से अथवा शुभभाव व शुभक्रिया से लाभ मानता है, वह अन्तरंगतत्त्व को नहीं जानता । २"
इसप्रकार इस छन्द में कहा गया है कि आत्मनिष्ठ योगी ही सच्चे योगी हैं, स्ववश सन्त हैं, निश्चय आवश्यक के धारी हैं। जो जीव स्वात्मा से भ्रष्ट हैं, वे बहिरात्मा हैं । तात्पर्य यह है कि अपने आत्मा में अपनापन स्थापित करके, उसे ही निजरूप जानकर, जो योगी स्वयं में ही समा जाता है, वही सच्चा योगी है। जगतप्रपंचों में उलझे लोग स्ववश योगी नहीं हो सकते ।। २५८॥
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ९४
२. वही, पृष्ठ ९४