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नियमसार गाथा १४७ विगत गाथा में स्ववश सन्तों का स्वरूप स्पष्ट किया गया है और अब इस गाथा में स्ववश सन्त होने के उपाय पर विचार करते हैं। गाथा मूलतः इसप्रकार है ह्न
आवासं जह इच्छसि अप्पसहावेसु कुणदि थिरभावं । तेण दु सामण्णगुणं संपुण्णं होदि जीवस्स ।।१४७।।
(हरिगीत) आवश्यकों की चाह हो थिर रहो आत्मस्वभाव में।
इस जीव के हो पूर्ण सामायिक इसी परिणाम से ||१४७|| हे सन्त ! यदि तुम अवश्य करने योग्य आवश्यक प्राप्त करना चाहते हो तो आत्मस्वभाव में स्थिरतारूप भाव करो; क्योंकि जो आत्मस्वभाव में स्थिर भाव करता है, उससे उसे सामायिक गुण पूर्ण होता है।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
"यह शुद्धनिश्चय आवश्यक की प्राप्ति के उपाय के स्वरूप का कथन है।
बाह्य षट् आवश्यक के प्रपंच (विस्तार) रूपी नदी की कल-कल ध्वनि के कोलाहल के श्रवण से पराङ्मुख अर्थात् व्यवहार-आवश्यकों से विरक्त हे शिष्य ! यदि तू संसाररूपी लता (बेल) की जड़ को छेदने के लिए कुठार के समान शुद्ध निश्चय धर्मध्यान और शुक्लध्यानरूप स्वात्माश्रित निश्चय आवश्यक चाहता है तो तू सकल विकल्पजाल से मुक्त निरंजन निज परमात्मा के सहजज्ञान, सहजदर्शन, सहजचारित्र और सहजसुख आदि भावों में स्थिरभाव कर; क्योंकि इससे ही निश्चय सामायिक गुण उत्पन्न होता है। उसके होने पर मुमुक्षु जीव को बाह्य आवश्यक क्रियाओं से क्या लाभ है ? उनसे तो अनुपादेय (हेय) फल ही उत्पन्न होता है ह ऐसा अर्थ है; क्योंकि इस जीव को अपुनर्भवरूपी,
गाथा १४७ : निश्चय परमावश्यक अधिकार
११९ मुक्तिरूपी स्त्री के संभोग और हास्य प्राप्त करने में समर्थ निश्चय परमावश्यक से ही सामायिक चारित्र सम्पूर्ण होता है, पूर्णता से प्राप्त होता है।"
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा और इसकी टीका के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
"जगत में लोग देह की क्रिया एवं शुभविकल्पों से सामायिक मानते हैं, परन्तु वह वास्तविक सामायिक नहीं है। मिथ्यात्व रागादि रहित अन्तरस्वभाव में स्थिर होना, परमशांत अतीन्द्रिय आत्मसुख में लीन रहना ही सच्ची सामायिक है। सामायिक की पूर्णता में छह आवश्यक की पूर्णता हो जाती है।
यहाँ कहते हैं कि यदि तू षट्-आवश्यक की प्राप्ति करना चाहता है, तो निर्मल आत्मस्वभाव में स्थिरतारूप निश्चयरत्नत्रय-वीतरागभाव प्रगट कर! इससे सामायिक गुण सम्पूर्ण होता है। यही मुनिपना है, यही सामायिक है। बाह्यवेष, विकल्प अथवा मुनिपना सामायिक नहीं है।'
मनिराज सहजज्ञान, सहजदर्शन.सहजवीर्य. सहजचारित्र. सहज सुख, सहज छह कारकसामर्थ्यस्वभाव अनादि अनन्त पूर्णस्वभाववान कारणपरमात्मा में और उसके शुद्धस्वभाव में सतत निश्चय स्थिरभाव/ एकाग्रता करते हैं; जिससे उन्हें निश्चय सामायिक उत्पन्न होता है, तब फिर मुमुक्षु जीव को बाह्य शुभ विकल्परूप व्यवहार क्रियाओं से क्या मिला ? अर्थात् अनुपादेय-हेय/निंद्यफल ही उत्पन्न हुआ ह ऐसा अर्थ है ?"
इस गाथा और उसकी टीका में ऐसे पात्र मुनिराजों को शिष्य के रूप में लिया गया है कि जो यथायोग्य व्यवहार आवश्यक होने पर भी उनसे पराङ्मुख हैं और निश्चय परम आवश्यक के अभिलाषी हैं। उनसे कहा जा रहा है कि आप विकल्पजाल से मुक्त होकर एकमात्र निज आत्मा का ही चिन्तन-मनन, ज्ञान-ध्यान करो; क्योंकि एकमात्र इससे ही परमावश्यकरूप सामायिक गुण पूर्ण होता है।।१४७|| १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ८७
२. वही, पृष्ठ ८७