Book Title: Niyamsara Anushilan
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 54
________________ १०६ नियमसार अनुशीलन (दोहा) ब्रह्मनिष्ठ मुनिवरों को दृष्टादृष्ट विरुद्ध । आत्मकार्य को छोड़ क्या परचिन्ता से सिद्ध ॥ ६७ ॥ आत्मकार्य को छोड़कर दृष्ट (प्रत्यक्ष) और अदृष्ट (परोक्ष) से विरुद्ध चिन्ता से, चितवन से ब्रह्मनिष्ठ मुनियों को क्या प्रयोजन है ? इस छन्द के भाव को आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “जिनको आत्मानुभव नहीं हुआ है - ऐसे पराश्रय दृष्टिवान तपोधन शुभविकल्पों में धर्म मानकर राग में अटके हुए हैं, इसलिए वे अन्यवश हैं। वे भेद एवं विकार के स्वामी होते हैं, अभेदस्वभाव के स्वामी नहीं होते। जिन्होंने दर्शनमोह व चारित्रमोहरूपी अन्धकार समूह का नाश किया है और जो अखण्डानन्द निजपरमात्मतत्त्व की भावना से उत्पन्न वीतराग सुखामृत के स्वाद में तत्पर हैं। - ऐसे श्रमण ही वास्तव में श्रमण हैं, महाश्रमण हैं, परमश्रुतकेवली हैं। उन्होंने ही उपरोक्त प्रकार से अन्यवश का स्वरूप कहा है। बाह्यव्रतादि के विकल्पों में उलझे व्यक्ति को तो धर्म है ही नहीं; परन्तु अपने अन्दर के द्रव्य-गुण-पर्याय के भेद के विकल्प के वश रहनेवाले के भी धर्म नहीं है; क्योंकि राग में एकाग्र रहनेवाला उपयोग रागी चैतन्य में कैसे जुड़ सकता है ? अर्थात् परावलम्बन में - पर के साथ जुड़ान में तो राग की ही उत्पत्ति होती है, वहाँ वीतरागी शान्ति प्रगट नहीं होती। यहाँ कहते हैं कि किसी के चिन्ता करने से स्व-पर का न तो कुछ भी बिगड़ता है और न ही कुछ सुधरता है; इसलिए यहाँ शुभ-अशुभ भावों को, द्रव्यादि के विकल्पों को एवं सर्वभेदों को गौण करके ज्ञायकस्वभाव में एकाग्र होना ही एकमात्र प्रयोजन बताया है। यही आवश्यक है, यही स्ववशपना है। २" १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १९८४-१९८५ २. वही, पृष्ठ १९८५ ११८६ 54 गाथा १४५ : निश्चय परमावश्यक अधिकार इस कलश में यह कहा गया है कि अपने आत्मा के ज्ञान-ध्यान को छोड़कर जो कार्य प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणों से सिद्ध नहीं होते ह्र ऐसे व्यर्थ के कार्यों में उलझने से किस कार्य की सिद्धि होती है। विशेष आत्मज्ञानी मुनिराजों को तो इनमें से किसी स्थिति में उलझना ठीक नहीं है ।। ६७ ।। १०७ (अनुष्टुभ् ) यावच्चिन्तास्ति जन्तूनां तावद्भवति संसृतिः । यथेंधनसनाथस्य स्वाहानाथस्य वर्धनम् ।। २४६ ।। (दोहा) जबतक ईंधन युक्त है अग्नि बढ़े भरपूर | जबतक चिन्ता जीव को तबतक भव का पूर || २४६ ॥ जिसप्रकार जबतक ईंधन हो, तबतक अग्नि वृद्धि को प्राप्त है; उसीप्रकार जबतक जीवों को चिन्ता है, तबतक संसार है । आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस छन्द के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र " जिसप्रकार अग्नि को जबतक ईंधन मिलता रहता है, तबतक वह बढ़ती ही जाती है, बुझती नहीं है; इसीप्रकार जबतक शुभाशुभभाव है, उसकी चिन्ता है, तबतक आकुलतामय संसाररूपी अग्नि बढ़ती ही जाती है, खत्म नहीं होती। संसार के कारणों से मोक्षमार्ग प्रगट नहीं होता; इसलिए सर्वप्रथम यह नक्की करो कि पुण्य-पाप के भाव हितरूप नहीं हैं, अपितु निर्मल ज्ञाता-दृष्टा स्वभाव में एकाग्रता ही हितरूप है, हितकारी है।" जिसप्रकार जबतक ईंधन है, तबतक अग्नि भड़कती ही है; उसीप्रकार जबतक सांसारिक कार्यों की चिन्ता में यह जीव उलझा रहेगा; तबतक संसार परिभ्रमण होगा ही। अतः जिन्हें संसार परिभ्रमण से मुक्त होना हो, वे सन्तगण सांसारिक चिन्ताओं से पूर्णतः मुक्त रहें || २४६ ॥ • १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ११८७

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