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नियमसार अनुशीलन जिसप्रकार बालक बिना संकोच के नाचता-गाता है। उसीप्रकार इन्द्रादि भी बिना संकोच के हर्ष विभोर होकर नाचते हैं। अन्तर में उमंगपूर्वक उछल-उछलकर चिदानंदघनस्वरूप वीतरागी शांत जिनबिम्ब की महिमा चित्त में ला-लाकर कहते हैं कि 'अहो धन्य है वीतरागता' ह्र इसप्रकार वे सदा भक्तिरस में उत्साहवान होते रहते हैं। यह व्यवहार भक्ति है। ऐसे धर्मात्मा जीव के इसप्रकार व्यवहार भक्ति के साथ ही सर्वप्रकार के राग का निषेध करनेवाली ज्ञातास्वरूप में एकाग्रतारूप निश्चयभक्ति होती है।"
चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति वाचक इस छन्द में उन्हें गुणों में सर्वश्रेष्ठ बताया गया है, सर्वाधिक पुण्यशाली कहा गया है। इन्द्र लोग जब उनके चरणों में नमस्कार करते हैं, तब उनके मुकुटों में लगी मणियाँ भी उनके चरणों के स्पर्श का लाभ ले लेती हैं। इन्द्रों की इस भक्ति मुद्रा का वर्णन अनेक भक्ति रचनाओं में विविध प्रकार से हुआ है।।२३१।। दूसरा व तीसरा छन्द इसप्रकार है ह्र
(आर्या ) वृषभादिवीरपश्चिमजिनपतयोप्येवमुक्तमार्गेण । कृत्वा तु योगभक्तिं निर्वाणवधूटिकासुखं यान्ति ।।२३२ ।। अपुनर्भवसुखसिद्ध्यै कुर्वेऽहं शुद्धयोगवरभक्तिम् । संसारघोरभीत्या सर्वे कुर्वन्तु जन्तवो नित्यम् ।।२३३।।
(वीरछन्द) ऋषभदेव से महावीर तक इसी मार्ग से मुक्त हुए। इसी विधि से योगभक्ति कर शिवरमणी सुख प्राप्त किये।।२३२ ।।
(दोहा) मैं भी शिवसुख के लिए योगभक्ति अपनाऊँ।
भव भय से हे भव्यजन इसको ही अपनाओ||२३३|| तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव से लेकर महावीर भगवान तक के सभी
गाथा १४० : परमभक्ति अधिकार तीर्थंकर जिनेश्वर भी इसी मार्ग से योगभक्ति करके मुक्तिरूपी वधू के सुख को प्राप्त हुए हैं। __ मुक्ति सुख की प्राप्ति हेतु मैं भी शुद्धयोग की उत्तम भक्ति करता हूँ। संसार दु:ख के भयंकर भय से सभी जीव उक्त उत्तम भक्ति करो।
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी उक्त छन्दों का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
उस भक्तिसुख की सिद्धि के अर्थ मैं भी शुद्धयोग की भक्ति करता हूँ। हे जगत के भव्यजीवो! यदि तुम्हें घोर-अपार संसार भ्रमण का भय हो, तो तुम भी नित्यशरणरूप निर्भय निज परमपद की प्राप्ति के लिए उस उत्तमभक्ति की निरन्तर उपासना करो, उसका सेवन करो।"
इन छन्दों में मात्र यही कहा गया है कि ऋषभादि तीर्थंकरों ने इसी मार्ग से मुक्तिसुख को प्राप्त किया है; मैं भी इसी मार्ग पर जाता हूँ और आप सब भी इसी योगभक्ति के मार्ग पर चलो ।।२३२-२३३।।
इसके बाद के चौथे छन्द में टीकाकार मुनिराज परमब्रह्म में लीन होने की भावना व्यक्त करते हैं। छन्द मूलत: इसप्रकार है ह्र
(शार्दूलविक्रीडित ) रागद्वेषपरंपरापरिणतं चेतो विहायाधुना शुद्धध्यानसमाहितेन मनसानंदात्मतत्त्वस्थितः । धर्मं निर्मलशर्मकारिणमहं लब्ध्वा गुरोः सन्निधौ ज्ञानापास्तसमस्तमोहमहिमा लीने परब्रह्मणि ।।२३४।।
(वीरछन्द) गुरुदेव की सत्संगति से सुखकर निर्मल धर्म अजोड़। पाकर मैं निर्मोह हुआ हूँ राग-द्वेष परिणति को छोड़। शुद्धध्यान द्वारा मैं निज को ज्ञानानन्द तत्त्व में जोड़। परमब्रह्म निज परमातम में लीन हो रहा हूँ बेजोड़।।२३४ ।। गुरुदेव के सान्निध्य में निर्मल सुखकारी धर्म को प्राप्त करके ज्ञान
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१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ११५१
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ११५३