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नियमसार अनुशीलन श्री पद्मप्रभमलधारिदेव महाननिर्ग्रन्थ सन्त ब्रह्मचर्य महाव्रत के धारी आत्मध्यान में मग्न और महावैराग्यवन्त सन्त थे। जिनके वस्त्रादि से रहित देहमात्र परिग्रह था। जो इन्द्रिय-विषय वृत्ति व प्रवृत्ति रहित अतीन्द्रिय आत्मशान्ति के विस्तार में स्थित थे। ह ऐसे परम वीतरागी सन्त ने सनातन मार्ग में यथार्थ भक्ति का वर्णन ह इस दसवें परमभक्त्यधिकार में किया है और लोक में जो भक्ति योग के बारे में विपरीतता चलती है, उसका निषेध किया है।"
उपसंहार की इस अन्तिम गाथा में उस भगवान आत्मा की शरण में जाने की बात कही गई है। जो पुण्य-पाप के भावरूप अघ से रहित अनघ है और सभीप्रकार के द्वन्दों से रहित अद्वन्दनिष्ठ है।
टीकाकार मुनिराज कहते हैं कि मैं भी उसी अनघ अद्वन्दनिष्ठ आत्मा की संभावना कर रहा हूँ, उसी की शरण में जा रहा हूँ और आप सभी भव्यात्माओं से अनुरोध करता हूँ कि आप सब भी उसी की शरण में जावें; क्योंकि जो लोग संसार सुखों से निस्पृही हैं और सच्चे अर्थों में मुमुक्षु हैं; उन्हें मुक्ति के अतिरिक्त अन्य किसी भी पदार्थ से क्या प्रयोजन है ? ___इसप्रकार हम देखते हैं कि परमभक्ति अधिकार में यही कहा गया है कि निज भगवान आत्मा के ज्ञान, श्रद्धान और लीनतारूप निश्चयरत्नत्रय ही परमभक्ति है, निश्चयभक्ति है, निवृत्तिभक्ति है।
यद्यपि व्यवहारनय से मुक्तिगत सिद्धभगवन्तों की गुणभेदरूप भक्ति को भी परमभक्ति कहा गया है; तथापि मुक्ति की प्राप्ति तो अपने आत्मा को निश्चय रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग में स्थापित करनेवाले को ही प्राप्त होती है।।२३७।।
अधिकार के अन्त में टीकाकार मुनिराज स्वयं लिखते हैं कि इसप्रकार सुकविजनरूपी कमलों के लिए जो सूर्य के समान हैं और पाँच इन्द्रियों के विस्तार रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था, ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसार (आचार्य कुन्दकुन्द प्रणीत) की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में परमभक्ति अधिकार नामक दसवाँ श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ११५७
निश्चयपरमावश्यकाधिकार (गाथा १४१ से गाथा १५८ तक)
नियमसार गाथा १४१ विगत दस अधिकारों में क्रमश: जीव, अजीव, शुद्धभाव, व्यवहारचारित्र, परमार्थप्रतिक्रमण, निश्चयप्रत्याख्यान, परम आलोचना, शुद्धनिश्चय प्रायश्चित्त, परमसमाधि, परमभक्ति की चर्चा हुई। अब इस ग्यारहवें अधिकार में निश्चय परम आवश्यक की चर्चा आरंभ करते हैं।
इस अधिकार की पहली गाथा और नियमसार शास्त्र की १४१वीं गाथा की उत्थानिका लिखते हुए टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव लिखते हैं ह्न
"अब व्यवहार छह आवश्यकों के प्रतिपक्षी शुद्धनिश्चय (शुद्ध निश्चय आवश्यक) का अधिकार कहा जाता है।"
गाथा मूलत: इसप्रकार है तू जोण हवदि अण्णवसो तस्सदुकम्म भणंति आवासं। कम्मविणासणजोगो णिव्वुदिमग्गो त्ति पिज्जुत्तो ।।१४१।।
(हरिगीत ) जो अन्य के वश नहीं कहते कर्म आवश्यक उसे।
कर्मनाशक योग को निर्वाण मार्ग कहा गया ।।१४१।। जो जीव अन्य के वश नहीं होता, उसे आवश्यक कर्म कहते हैं। तात्पर्य यह है कि अन्य वश नहीं होना ही आवश्यक कर्म है। कर्म का विनाश करनेवाला योगरूप परम आवश्यक कर्म ही निर्वाण का मार्ग है ह्न ऐसा कहा गया है।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव तात्पर्यवृत्ति टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
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