Book Title: Niyamsara Anushilan
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 28
________________ नियमसार अनुशीलन जिसप्रकार जब पक्षी अपने पंख फैलाता या समेटता है तो धूल उड़ जाती है; उसीप्रकार जब आत्मा स्वभाव में लीन होता है, तब कर्म अपने-आप खिर जाते हैं।' आत्मा सामान्य-विशेषात्मक है। सामान्य त्रिकाली द्रव्य पति है और उसकी विशेष परिणति ही उसकी अर्धांगिनी है। उस परिणति के बिना आत्मा कभी नहीं रहता और परिणति भी कभी आत्मा से जुदी नहीं होती । इसलिए आत्मद्रव्य की सच्ची अर्धागिनी तो सिद्धपर्याय ही है।' सिद्ध भगवान कल्याण के धाम हैं; परन्तु वे कल्याण के धाम स्वयं के लिए हैं, दूसरों के लिए नहीं; 'दूसरों के लिए कहना' ह्र यह तो व्यवहार हैह्र ऐसा ज्ञानी जानते हैं और उन्हें उसमें राग होने के कारण भक्ति का व्यवहार भी होता है। यहाँ सिद्धों की विकल्पात्मक भक्ति को व्यवहार भक्ति एवं निर्विकल्प रत्नत्रय को निश्चय भक्ति कहा है। पिछले श्लोक में निश्चय-व्यवहार से बात की थी और इस श्लोक में अस्ति-नास्ति से बात की है। इसमें कहा है कि सिद्ध भगवान सम्पूर्ण गुणों से सहित हैं एवं सम्पूर्ण दोषों से रहित हैं। उनके रागरहित परम वीतराग दशा प्रगट हुई है, उनके रागरहित शुद्धोपयोग है।' यहाँ सिद्धदशा को शुद्धोपयोग का फल बताया है।" उक्त छन्दों में से प्रथम छन्द में अष्टकर्मों से रहित, अष्टगुणों से मंडित, शिवरमणी के पति और कल्याण के धाम सिद्ध भगवान को भक्ति पूर्वक नमस्कार किया गया है। दूसरे छन्द में निश्चय-व्यवहार भक्ति का स्वरूप समझाते हुए निश्चय रत्नत्रय को निश्चय निर्वाण भक्ति और सिद्ध भगवान के गुणगान को व्यवहार निर्वाण भक्ति कहा गया है। तीसरे छन्द में सिद्धपद को शुद्धोपयोग का फल बताया गया है।।२२१-२२३॥ १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ १११७ २. वही, पृष्ठ १११७ ३. वही, पृष्ठ १११८ ४. वही, पृष्ठ १११८-१११९ ५. वही, पृष्ठ ११२० ६. वही, पृष्ठ ११२० गाथा १३५ : परमभक्ति अधिकार इसके बाद सिद्ध भगवन्त की स्तुति करनेवाले दो छन्द प्रस्तुत किए हैं; जो इसप्रकार हैं ह्न (शार्दूलविक्रीडित ) ये लोकाग्रनिवासिनो भवभवक्लेशार्णवान्तं गता ये निर्वाणवधूटिकास्तनभराश्लेषोत्थसौख्याकराः। ये शुद्धात्मविभावनोद्भवमहाकैवल्यसंपद्गुणाः तान् सिद्धानभिनौम्यहं प्रतिदिनं पापाटवीपावकान् ।।२२४।। त्रैलोक्याग्रनिकेतनान् गुणगुरून् ज्ञेयाब्धिपारंगतान् मुक्तिश्रीवनितामुखाम्बुजरवीन् स्वाधीनसौख्यार्णवान् । सिद्धान् सिद्धगुणाष्टकान् भवहरान् नष्टाष्टकर्मोत्करान् नित्यान्तान् शरणं व्रजामि सततं पापाटवीपावकान् ।।२२५।। (हरिगीत ) शिववधूसुखखान केवलसंपदा सम्पन्न जो। पापाटवी पावक गुणों की खान हैं जो सिद्धगण॥ भवक्लेश सागर पार अर लोकायवासी सभी को। वंदन करूँ मैं नित्य पाऊँ परमपावन आचरण ।।२२४ ।। ज्ञेयोदधि के पार को जो प्राप्त हैं वे सुख उदधि । शिववधूमुखकमलरवि स्वाधीनसुख के जलनिधि। आठ कमों के विनाशक आठगुणमय गुणगुरु। लोकायवासी सिद्धगण की शरण में मैं नित रहूँ॥२२५।। जो लोकाग्र में वास करते हैं, भव-भव के क्लेशरूपी सागर को पार को प्राप्त हुए हैं, मुक्तिरूपी स्त्री के पुष्ट स्तनों के आलिंगन से उत्पन्न सुख की खान हैं तथा शुद्धात्मा की भावना से उत्पन्न केवलज्ञान की सम्पत्ति के महान गुण वाले हैं; पापरूपी भयंकर वन को जलाने में अग्नि के समान उन सिद्ध भगवन्तों को प्रतिदिन नमन करता है। तीन लोक के अग्रभाग में निवास करनेवाले, गुणों में भारी, ज्ञेयरूपी महासागर के पार को प्राप्त, मुक्तिलक्ष्मीरूपी स्त्री के मुखकमल के सूर्य, स्वाधीन सुख के सागर, अष्ट गुणों को सिद्ध करनेवाले, भव तथा आठ

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