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( १२ ) करना चाहिए । और इस सत्यात्मक दृष्टिकोण से 'आत्मा' नित्य भी है और अनित्य भी, है । द्रव्य की दृष्टि से आत्मा नित्य है और पर्याय की दृष्टि से अनित्य है । बस 'ही' के प्रयोग से परस्पर में जो विरोध बढ़ते हैं 'भी' से वे सब द्वन्द्व एकदम शान्त हो जाते हैं । 'ही' से संघर्ष कैसे उत्पन्न होता है, इस विषय में एक बड़ा सुन्दर लघु कथानक है।
"दो आदमी नाच देखने गये । एक अन्धा और दूसरा बहरा । रात-भर तमाशा देखकर सुबह दोनों अपने घर वापिस लौट रहे थे। रास्ते में एक आदमी पूछ बैठा-"क्यों भई , नाच कैसा था ?' अन्धे ने कहा-"आज केवल गाना ही हुआ है, नाच कल होगा।" बहरे ने कहा-"अाज तो सिर्फ नाच ही हुआ है, गाना कल होगा।” दोनों लगे अपनी-अपनी तानने । खींच-तान के साथ कहा-सुनी हो गई और मार-पीट तक की नौबत आ गयी।"
बस, 'नयवाद' यही कहता है कि एक ही दृष्टि-कोण के अँधे, बहरे मत बनो। दूसरों की भी सुनो और दूसरे के दृष्टिबिन्दु को भी परखो । तमाशे में हुई थी दोनों चीजें नाच भी
और गाना भी । पर, अन्धा नाच न देख सका और बहरा गाना न सुन सका । आज गाना 'ही' हुआ है अथवा अाज नाच 'ही' हुआ है-इस'ही' से ही दोनों में लड़ाई ठनगई । नय. वाद परस्पर में संघर्ष पैदा करने वाली 'ही' का उन्मूलन
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