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व्यतिरेकि दृष्टान्त के द्वारा समभिरूड़नय के मन्तव्य को पुष्ट करते हैं
यदि पर्यायभेदेऽपि, न भेदो वस्तुनो भवेत् । भिवपर्याययोर्न स्यात्, स दुम्भपटयोरपि ॥१६॥
अर्थ यदि पर्याय का भेद होने पर भी वस्तु का भेद न माना जाय, तो भिन्न पर्यायवाले कुम्भ और पट में भी भेद नहीं होना चाहिए।
विवेचन समभिरूढ़ नय शब्द-भेद होने पर अर्थ-भेद स्वीकार करता है । इस व्याख्या की पुष्टि के लिए ही ग्रन्थकार कह रहे हैं कि यदि पर्याय के भेद होने पर भी वस्तु का भेद नहीं माना जायगा, तो फिर पर्याय-भेद होने पर भिन्न पर्याय वाले कुम्भ और पट के अर्थ में भी कोई भेद नहीं होना चाहिए । कुम्भ शब्द अलग है और पट शब्द अलग है । दोनों के प्रवृत्ति-निमित्त भी अलग-अलग हैं । अर्थात् कुम्भनात् कुम्भः, कुत्सित रूप से पूर्ण होने से कुम्भ कहलाता है और पटनात्-अच्छादनात् पट:-प्रच्छादन करने के
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