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१. काय बनी है
अतः वीतराग भगवान् का एक स्तुतिकार आचार्य कह रहा है कि हैं कि - "हे नाथ! जैसे समुद्र में इधर-उधर से आकर सब नदियाँ मिल जाती हैं; उसी प्रकार आप में सब दर्शनों की धाराएँ आकर मिल जाती हैं
“उदधाविव सर्वसिन्धवः, समुदीर्णास्त्वयि नाथ ! दृष्टयः ।”
प्रश्न होता है कि सातों नयजिनमें सभी विचारपद्धतियों का सवावेश हो जाता है ] भिन्न-भिन्न अभिप्राय वाले हैं, फिर वे सातों एकसाथ एक ही वस्तु में विवाद किये विना कैसे रह सकते हैं ? उपाध्यायश्रीजी ने चक्रवर्ती का दृष्टान्त देकर इसे बड़े सुन्दर ढंग से समझाने की कोशिश की है। इसके अतिरिक्त विरोधी धर्म एक ही वस्तु में कैसे रह सकते हैं, इस प्रश्न का समाधान निम्नलिखित एक: लौकिक दृष्टान्त से अच्छी तरह हो जाता है
कल्पना कीजिए, एक व्यक्ति बाजार के चौराहे पर खड़ा हैं । एक ओर से एक बालक ने आकर उसे कहा - "पिता जी !" दूसरी ओर से लाठी टेकता हुआ एक बूढ़ा आकर बोला" पुत्र !" तीसरी दिशा से एक प्रौढ़ व्यक्ति आकर बोल उठा "भाई साहब !" चौथी दिशा से एक विद्यार्थी आ निकला
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